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प्रस्तावना
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रूपिणी ने प्रद्युम्न की लालाओं से प्रसन्न होकर उससे नारद का समाचार पूछा तब प्रद्युम्न ने उसे बतलाया कि-"नारद तुम्हारी पुत्र-वधु (उदधिकुमारी) के साथ आकाश में स्थित है।" यह कहकर जब वह अपनी माता के साथ वहाँ जाने की तैयारी कर रहा था, तभी उसने कृष्ण की सभा में जाकर घोषणा की. - कि मैं भीष्म-सुता रूपिणी का हरण कर ले जा रहा हूँ। यदि तुम लोगों में शक्ति हो तो छीन लो। "कृष्ण एवं बलभद्र आदि ने प्रद्युम्न की इस चुनौती को स्वीकार किया। फलस्वरूप दोनों पक्षों में घमासान युद्ध हुआ (22-28 बारहवीं सन्धि)।
दोनों पक्षों के योद्धाओं ने दिव्यास्त्रों मोहनास्त्रों आग्नेयास्त्रों वरुपणास्त्रों पवनास्त्रों एवं स का खलकर प्रयोग किया। प्रद्यम्न ने भी विद्या के बल से कष्ण की समस्त सेना को नष्ट कर दिया। नारद इस घमासान संग्राम को देखकर आकाश से उतर कर आये और उन्होंने पिता-पुत्र दोनों को सम्बोधित कर दोनों का परस्पर में परिचय कराया। पिता-पुत्र गले से मिले और वे सभी बड़ी ही प्रसन्नतापूर्वक अपने नगर में वापिस लौटे। नगरवासियों ने प्रद्युम्न का हार्दिक स्वागत किया और महाराज कृष्ण ने उसे युवराज-पद प्रदान किया (1-17 तेरहवीं सन्धि)।
प्रद्युम्न के विवाहोत्सव पर राजा कृष्ण के दरबार में राजा-कालसंवर, कनकमाला एवं मनोजवेग विद्याधर आये। अवसर पाकर रानी रूपिणी ने कनकमाला की बड़ी प्रशंसा की। राजा कालसंवर ने भी प्रद्युम्न की विद्या के लाभ का वर्णन किया और उसका शीघ्र ही विवाह कर देने की इच्छा प्रकट की। शुभ-मुहूर्त में उसका विवाह रति नामकी एक श्रेष्ठ विद्याधर कन्या के साथ कर दिया गया।
प्रद्युम्न एवं रति के विवाह के पश्चात् रानी रूपिणी एवं सत्यभामा का सम्मिलन हुआ, दोनों में उग्र वार्तालाप एवं वसुदेव, बलभद्र द्वारा शान्ति स्थापित किए जाने के बाद प्रद्युम्न के विवाह के लिए अन्य अनेक राजाओं को निमन्त्रण-पत्र प्रेषित किये गये।
समयानुसार उसके विवाह के अवसर पर मण्डप की सुरुचि-सम्पन्न सजावट की गयी। युवतियाँ नाट्य-रसों के भावों से युक्त गीत गाने लगीं। मन्त्रित देशों के राजा उसमें सम्मिलित हुए और उसी समारोह के बीच 500 कन्याओं के साथ प्रद्युम्न का विवाह सम्पन्न हुआ। सप्तस्वरों का उच्चारण किया गया एवं विविध प्रकार के नेग हुए (1-7)। ___प्रद्युम्न के विवाहों से सत्यभामा पूर्ववत् ईर्ष्यालु बनी ही रही और प्रतिक्रिया स्वरूप उसने भानुकुमार का विवाह अपने विद्याधर भाई रविकांत की पुत्री स्वयंप्रभा के साध रचा दिया (8)।
विवाहोपरान्त प्रद्युम्न जब सुखपूर्वक कालयापन कर रहा था, तभी पूर्व जन्म का उसका भाई कैटभ एक दिन स्वर्गलोग से दर्शनार्थ सीमन्धर स्वामी के पास आया वहाँ आकर उसने उनकी अभ्यर्थना की और उनसे धर्मोपदेशा सुना। सीमन्धर स्वामी ने कैटभ के पूर्व जन्म का उल्लेख करते हुए बताया कि "तुम्हारे पूर्व जन्म का भाई 'मधु' दारामई के राजा श्रीकृष्ण के पुत्र के रूप में जन्मा है। यह सुनते ही वह देव राजा श्रीकृष्ण के पास गया (9-10)। उस (कैटभ के जीव-देव) ने राजा कृष्ण को एक सुन्दर हार देकर कहा कि "यह हार जिस रानी को दिया जाएगा, उसी की कुक्षि से अलगे जन्म में, मैं अपना जन्म धारण करूँगा।" यह सुनकर श्रीकृष्ण ने वह हार सत्यभामा को देने के उद्देश्य से उसे उद्यान में बुलाया। प्रद्युम्न को जब यह विदित हुआ तब उसने एक चमत्कारी अंगूठी पहना कर जाम्बवती का सत्यभामा जैसा रूप बनाकर उसे कृष्ण के पास भेज दिया (11-12) | उसके पश्चात् ही वह देव स्वर्ग से चय कर जाम्बवती के गर्भ में आ गया। जाम्बवती ने अवसर पाकर वह अंगूठी