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महाकद सिंह विरइउ पज्जुण्णचरित
मायावी मेष से अपने ही पितामह को पराजित कराकर, राजभवन में उपस्थित द्विजों को परस्पर में लड़ाकर. सत्यभामा के यहाँ सैकड़ों पुरुषों के लिये तैयार कराए गये भोजन को ले ही सामार और उसे वहीं दम न कर उसने सभी को और विशेष रूपेण सत्यभामा को आश्चर्यचकित कर दिया (1-22)। इस प्रकार सत्यभामा को अपने लौतुक दिखाकर वह प्रद्युम्न पुनः क्षुल्लक का वेष बनाकर अपनी माता रूपिणी के राजमहल में जा पहुँचा: (23-24, ग्यारहवीं सन्धि)।
रूपिणी की शालीनता, सौम्यता, सुन्दरता एवं भद्रता से वह इतना अधिक प्रभावित हुआ कि मन ही मन उनके मातृ-स्वरूप को नमन कर उसने उनसे उत्तम पदार्थों की याचना की। रूपिणी ने महाराज कृष्ण के लिये रखे हुए विशेष मोदक उस क्षुल्लक को दिये । साधारण व्यक्तियों के लिए दुष्पाच्य उन मोदकों को उसने देखते ही देखते खा-पचा डाला। प्रद्युम्न को देखते ही रूपिणी को नारद द्वारा कथित सीमन्धर स्वामी के वृत्तान्त का स्मरण आ गया। रूपिणी सोचने लगी कि हो न हो यही मेरा पुत्र प्रद्युम्न है। किन्तु प्रद्युम्न के इस क्षुल्लक के कुरूप वेश
को देखकर वह अपने मन में सोचने लगी कि ऐसे पुत्र को लेकर मैं कृष्ण एवं सत्यभामा को अपना मुख कैसे दिखाऊँगी? अत: रूपिणी ने क्षुल्लक-वेशधारी उस नवागन्तुक से उसका कुल और गोत्र पूछा, क्षुल्लक ने उत्तर में कहा कि-"साधु का कोई कुल-गोत्र नहीं होता।" यह सुनकर रूपिणी अत्यन्त दुखी हो गई। तब क्षुल्लक ने दयार्द्र होकर उसके दुख का कारण पूछा। तब उसने उसे पूर्व-वृत्तान्त बतलाते हुए कहा कि...."सत्यभामा और मेरे बीच यह शर्त लगी थी कि जिसका पुत्र पहिले परिणय करेगा, वह दूसरी के केशों का मुण्डन करा कर, उन केशों को अपने पैरों से रोदेंगी। अब वही समय आ गश है। सत्यभामा के पुत्र भानु का विवाह हो रहा है। इसलिए अब वह मेरे साथ वही व्यवहार करेगी। इसी कारण में शोकाकुल हूँ (1-9)।
क्षुल्लक ने जब रूपिणी की व्यथा को सुना, तब उसने दाढस बंधाते हुए उससे कहा कि -"माता, दु:खी मत बनो, मैं ही तुम्हारा पुत्र प्रद्युम्न हूँ।" उसे समझा-बुझा कर उसने अपनी विद्या से शीघ्र ही मायामयी रूपिणी का निर्माण कर उसे सिंहासन पर बैठा दिया। थोड़ी ही देर में अनेक स्त्रियों के साथ रूपिणी का मुण्डन कर उसके केश लेने हेतु नापित आया, किन्तु प्रद्युम्न ने उस समय भी अपनी विद्या का ऐसा जाल फैलाया कि नाई ने मायामयी रूपिणी के भी केश न काट कर स्वयं अपनी नाक आदि काट डाली और साथ में आई हुई सभी महिलाएँ भी उसके विद्याबल से विरूप होकर सत्यभामा के पास वापिस पहुँची । सत्यभामा यह सब देखकर रूपिणी पर अत्यधिक कुपित हुई, और उसने उन सभी को राज्य सभा में बलभद्र के सम्मुख भेजा । बलभद्र भी ये सब विरूपाकृतियाँ देखकर क्रोध से जल उठे (10-13)। ___ अपनी माँ रूपिणी को दु:खी देखकर प्रद्युम्न ने अपना यथार्य रूप धारण किया, जिसे देखकर वह अत्यन्त हर्षित हो उठी। उसने अपनी विद्या के बल से तथा माँ के सुख-सन्तोष के लिये अपने जन्म से लेकर । वर्ष तक की आयु के सभी रूपों को धारण कर उसे दिखाया तथा उन्हीं के अनुरूप बाल-क्रीड़ाएँ भी दिखलायीं (14-16)। इधर, क्रोधित बलभद्र ने जब अपने सेवकों को रूपिणी के यहाँ भेजा, तभी प्रद्युम्न अपने विद्याबल से एक कृशकाय द्विज का रूप धारण कर सत्यभामा के यहाँ जा पहुँचा और फिर वहाँ से निकल कर रूपिणी के दरवाजे में लेट गया। वहाँ पर भी उसके चित्र-विचित्र कौतुक देखकर बलभद्र बड़े खुश हुए। प्रद्युम्न ने रूपिणी से बलभद्र का परिचय प्राप्त किया एवं उन्हें सिंह से लड़ने वाला जानकर प्रद्युम्न ने स्वयं सिंह का रूप धारण किया और बलभद्र से भिड़ कर उन्हें बुरी तरह पराजित कर दिया (17-21)।