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महाकई सित बिग्इ पन्जुण्णचरित
[13.15.13
जो तहलोय महंतु रमाउलु
विविह परिहि भूसिउ हरि राउलु। दुमदल मालेहिमि उम्मालिउ रंभा-धंभ सयह सोहालिउ । टाइँ-ठाइँ दिब्बर छाइउ
ठाइँ-ठाइँ जणु कहिंमि ण मायउ । डाइँ-ठाइँ वेसहिमि विसेस
णव रसु-गट्ट-गडंति संतोस.। छत्ता- एत्तहिं स सुण्ह भीसमहो सुब हरि-वलहद्द-दसार ससेहं। दम्भहँ मेलाबइ जं जि सुहु तं तइलोए ण दीसइ अण्णहं ।। 254 ।।
(16) उपपदी--. चल्लिउ चाउरां-बलु सहरिसु।
हय-गय-घडहं णिरोहिउ दसदिसु ।। लिहिउ णहंगणु छत्त धउयहिं ।
दिव्व महारह वाहिय जोयहिं ।। छ।। सीराउडु महुमहु एक्क रहे रूविणि ससुण्ह अण्णेक्क रहे। तणु तेय. रंजिय दिसि-णिवह रेहइ करि-कंधरे उवहि महू । शं पंचाएणु हिमगिरि सिहरे सिरि संठिउ सिविया जाणवरे।
वह भी वृक्षों के पत्तों एवं मालाओं से अलंकृत केले के सैकड़ों खम्भों से सुशोभित था। प्रत्येक स्थान दिव्य-वस्त्रों से आच्छादित था। प्रत्येक स्थान पर इतने जन इकट्ठे हो गये कि वे कहीं समा नहीं पा रहे थे। स्थान-स्थान पर वेशों से विशिष्ट (बनी-ठनी) नारियाँ सन्तुष्ट मन से नवों रस का नृत्य नाच रही थीं। पत्ता-... इतने में ही बहू सहित भीष्म-सुता—रूपिणी, हरि, बलभद्र एवं सेना सहित दशार राजा का मन
(प्रद्युम्न) से मिलाप हो गया। उससे (उन सभी को) जैसा सुख हुआ, वह त्रैलोक्य में अन्य किसी को हुआ हो, ऐसा दिखाई नहीं देता।। 254।।
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प्रद्युम्न एवं रूपिणी सहित कृष्ण गाजे-बाजे के साथ नगर में प्रवेश करते हैं चतुष्पदी-हर्ष सहित चतुरंग सेना चल पड़ी। हय, गज के समूहों ने दशों दिशाएँ रोक ली और योद्धाओं द्वारा
हाँके गये दिव्य महारथों के छत्रों एवं ध्वजाओं से आकाशरूपी आँगन ढंक गया।। छ।। एक रथ में हलधर और श्रीकृष्ण बैठे तथा अन्य दूसरे रथ में बहू सहित रूपिणी बैठी। अपने शरीर के तेज से दशों दिशा समूह को प्रकाशित करने वाला उदधिमाला (दुर्योधन-पुत्री) का प्रभु बह कामदेव (प्रद्युम्न) हाथी के कन्धे पर बैठकर सुशोभित हुआ। वह ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानों हिमालय के शिखर पर सिंह ही बैठा हो। शोभा-सम्पन्न शिविका (पालकी) में पाण्डव एवं दशारों के प्रमुख राजा बैठे और सुख उत्पन्न करते हुए चले।
(16) || शाह।