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________________ 272] 5 10 15 महारुद्र सिंह विरइन पज्जुष्णचरिउ सुत्र सरीरु अइ विणि वासु वि अवलोयति दिक्करि वर करू सिरि चुंविवि उच्चाइउ ह रूवएँ दिहि उप्पाइय णयणहँ ता णारएण त्तु में चिरावहिं हरिं जंप सडंगु वलु मारिउ किं सोहमि हम-गय-रह हीवि ता मुणिवरेण चउन्भुव वयणइँ जवसंहरि पर्वचहोणंदण कुसुम - सरेण जइहि आएसें मोहिय जे मोहणेण वरत्य हयगय रहवर उवरि सलग्गवि सार 'सव्वसाइ सेविउय उम्मुच्छिय हय-गयवर' वाहण यदु त्रिणं सूर सहासु वि । अविरल एलाहिं पुलहउ सिरिहरु | बार-बार अवरुंडिवि मोहइँ । कलावेण सोक्खु किउ स्वहँ । यि णंद पुर वरि पइसारहि । ससहोयर वइवसपुर पैसिउ । पुरि पइसनि गर जेम सुदीर्णा । विहप्पिणु पिउ सहु भयणइँ । समर-सूर जय पयणानंदज । आणंदेणं पवढिय तोसें । उज्जीविय विज्जा सामत्थइँ । हलहर समुह गरिंद सभग्गवि । जमल (+) - दसार कुंभ कुंभोयरु | अणो विणियंत विभियमण । (14) 1. अ. दरअयें। 2. अ रह [13.14.5 अप्रतिम-सौन्दर्य के निवास स्थल, सहस्रों सूर्यों के समान तेजस्वी तथा दिग्ग्ज की सूँड समान भुजाओं वाले अपने उस प्रद्युम्न को देखकर श्रीधर कृष्ण अविरल पुलकों से पुलकित हो उठे। उसका सिर घूमकर उसे स्नेह से भर उठा लिया, मोहित होकर बार-बार उसे गले से लगाया। उसका रूप देखकर अपने नेत्रों में धैर्य उत्पन्न किया और उसके साथ किये गये वार्तालाप से कानों को सुखी किया। उसी समय नारद ने (कृष्ण से ) कहा“अब मत देर करो। अपने नन्दन को नगरी में प्रवेश कराओ।" टब हरि ने कहा- " ( इस प्रद्युम्न ने ) हमारी डंग - सेना को मार डाला है। भाई सहित स्वजनों को वैवस्वतपुरी ( यमपुरी) को भेज दिया है, अतः हय, राज एवं रथों से हीन रहकर मैं क्या शोभा पाऊँगा? जिस प्रकार दीन-हीन मनुष्य नगर में प्रवेश करता है, उसी प्रकार मैं भी अपने नगर में प्रवेश करूँगा।" चतुर्भुज कृष्ण के वचनों को सुनकर मदन के साथ हँसते हुए मुनिवर ने कहा--- " है समरशूर, हे जयवीर, हे नयनानन्दन, हे नन्दन – प्रद्युम्न, अब तुम इस प्रपंच का उपसंहार (समाप्त) करो 1" नारद-यति के आदेश से वह कुसुम - शर ( प्रद्युम्न ) आनन्द से भरकर सन्तुष्ट हुआ तथा उसने अपने मोहनास्त्र से जो ( कृष्ण के भर ) मोहित हुए थे, उन सभी को अपनी विद्या की सामर्थ्य से जीवित कर दिया । हय, गज एवं रथबरों के ऊपर लगकर हलधर प्रमुख सभी राजा तथा सारण (युधिष्ठिर). सव्यसाची (अर्जुन), वृकोदर (भीम), यमल ( नकुल, सहदेव ), दशार राज कुम्भ ( द्रोण ), कुम्भोदर राजा, मूर्च्छारहित हो गये और हय, गजवर एवं वाहनों (रथों ) के साथ परस्पर में एक-दूसरे को देखकर आश्चर्य चकित मन वाले हो गये । (14) (1) दुधेन (2) युधिसिर । (3) भीम (4) नकुल सहदेव । (5) दोग।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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