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जाण सुवड्दिउ जो संवर-घरे सोलह भव्व- लब्भ" जें पाविय भुव डमरु (1) अहिहाणु (2) वि वलियउ तुमि मरण किं रणु मंडवि धिउ सो असेस णरवरर्हि णमंसिउ
दुव्विलसिउ परिसेसि मणोभुव
महाकद सिंह विरइज पज्जुण्णचरिज
यत्ता.... इय आयणिवि मुणि-वयणु अणदिउ पंकयणाहु रुणे ।
चपदी
शिएति सबंधु सेण मरणु एणु वि पर्वाड्दिउ सोउ भणे ।। 252 ।।
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विज्जउ तिणि बलग्गउ जसु करे । खगवs - सुव पथंड रणे णाविय । पंचदसम संवच्छरे मिलियउ । छंडहि रहु साउहु पेनहिं पिउ । जसु पयाउ तइलोएँ "पसंसिउ ।
पणवह चलण-कमल सुह संभव ।
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वियसिय वयणइँ कुवलय णयणइँ । णियसिर पुहइहिं लायवि मयाइँ । । चलण जुवलु काहहो पणविउ कह । कुस भणणं रामु आसि जह । । छ । ।
( प्रद्युम्न ) परिचय देते हुए पुन: कहा- हे कृष्ण यह जानो कि वियोग को प्राप्त यह तुम्हारा वह रूपिणी पुत्र प्रद्युम्न है, जो अपहरण के बाद यह कालसंवर नामके विद्याधर के घर में बढ़ा है, जिसके हाथ में तीन (दिव्य ) विद्याएँ उपस्थित रहती हैं। जिसने सौलह भव्य लाभ प्राप्त किये हैं, जिसने प्रचण्ड रण में खगपतियों के पुत्रों को भी झुक दिया है, जिसने लोक में बलशाली भयंकर कन्दर्प जैसा नाम भी पाया है, और जो पन्द्रहवें वर्ष में आज तुम्हें मिल रहा है।” (फिर नारद मुनि ने प्रद्युम्न की और मुड़कर उससे कहा – ) हे मदन, तुम भी रण माँड़कर क्यों खड़े हो ? आयुध सहित रथ को छोड़ो, (सम्मुख आये अपने ) पिता को देखो, जिन्हें सम्पूर्ण नरवर नमस्कार किया करते हैं, जिनका प्रताप त्रैलोक्य द्वारा प्रशंसित है, हे मनोद्भव ( मदन ) अब इस दुर्विलसित को छोड़कर और कमलमुख सम्भव- कृष्ण के चरणों में प्रणाम करो। "
घत्ता
(13) 3. अ. लछ । 4. अ. लाहें। 5. मं
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इस प्रकार के मुनि बचनों को सुनकर पंकजनाभ—कृष्ण तत्काल तो आनन्द से भर आनन्दित हो उठे, किन्तु बन्धु बान्धवों सहित अपनी सेना का मरण देखकर उनके मन में पुनः शोक बढ़ने लगा । । 252 ।।
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पिता-पुत्र मिलाप । प्रद्युम्न अपनी दिव्य विद्या से कृष्ण के मृत बन्धु बान्धवों को जीवित कर कृतार्थ कर देता है चतुष्पदी --- कुवलय नेत्र वाले उस मदन ने विकसित मुख होकर अपना सिर पृथिवी पर लगा कर कृष्ण के चरण-युगल में प्रणाम किया। किस प्रकार प्रणाम किया, उसी प्रकार जिस प्रकार अतीत काल में कुश भट ने राम को प्रणाम किया था । । छ । ।
(13) (1) करु (2) कंद्राम