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महाकर सिंह चिरs पज्जुष्णचरिउ
घरघरोलि धव घेविरु सुभल्लउ । जिगि जिरंतु दिणमणि सोहंतउ । दुक्क तुरंत रणउहे कुपिवि । चाह दिए झंप खणइँ ।
इय भारइँ णामिय महि णिरु खामिय हरिणावेहाविद्धहूँ ।। 2511।
किंकिणि चमर सयहँ सोहिल्लउ अद्धइंद समरुइ रेहंतउ एरिसु चम्मरयणु उरे चप्पिवि पत्ता- मिल्लेविंगुरहरु
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चप्पदी- थरहरंतु पायालु वि कंपिउ ।
गिरि टलटलिय अमरजणु जंपिउ ।। हा हा हा भांत गउ रइवए ।
पुणु रूविणि पट्ठि
धाविव रिउ रहउरे पउ मेल्लिवि ता णिएवि णारएण णहच्छइँ सुंदरयरु विमाणु हे छंडिवि जंपइ चारु चारु जसु लद्धउ तो हरि रोसाणलु उवसंतउ
(12) 4, 3" |
(13) 1. अ. 'हु'। 2. ब कि ।
दुहरु । छ । । हणइँ जाम असिवरु उच्चलिवि । सुर- किण्णर पर साव समच्छइँ । लहु उयरिवि कण्हु अवरुंडिवि । यिनंदणु भारहुँ पारखउ । मुणिणा वयण सलिल संसि त्तउ ।
[13.12.15
अति उत्तम, भद्र अर्धचन्द्र के समान कान्ति ते शोभायमान् सूर्य समान जगमगाता हुआ सुन्दर चर्मरत्न अपने हृदय में चिपकाकर कृष्ण क्रोधित होकर तुरन्त ही रणभूमि में आ हुका ।
घत्ता--- ध्वजा एवं चामर सहित रथवर को छोड़कर आधे क्षण में ही झाँप ( उछाल) देकर तथा अपने पद - भार से क्षमाशील पृथिवी को उस हरि ने कृपाण के वेध से बींधना प्रारम्भ किया ।। 251 ।।
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कृष्ण का क्रोधावेग देखकर नारद चिन्तित हो उठते हैं और नभोयान से उतर कर पिता-पुत्र का परिचय कराते हैं। चतुष्पदी - ( क्रोधित कृष्ण के कृपाण से – ) पाताल भी थरथराता हुआ काँपने लगा। पर्वत टलटलाने ( हिलने ) लगे । देवगण बड़बड़ाने लगे। तब हो हो हो करता हुआ रतिवर चला और इससे रूपिणी के भार दुख से भर उठी । । छ ।
वह कृष्ण झपट कर जब रिपु- प्रद्युम्न के रथ पर पैर रख कर उसे मारने के लिए अपना कृपाण उछालता है तभी नभ स्थित नारद ने ( यह सब ) देखकर देवों, किन्नरों मनुष्यों एवं नागेन्द्रों के समक्ष ही अपना सुन्दरतर विमान आकाश में ही छोड़कर, तत्काल ही उससे उतरकर कृष्ण को आलिंगन में भर लिया और बोले -- " बहुत अच्छा, बहुत अच्छा, जो अपने ही पुत्र को मारने का प्रयास कर यश प्राप्त करने जा रहे हो । " मुनि नारद के इन वचन रूपी जल से संसिक्त होकर हरि-कृष्ण की रोणाग्नि जब शान्त हो गई तब नारद ने उसका