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13.12.14]
महाकद सिंह बिरडा पशुपणचरिउ
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(12) चउप्पदी- ता सहसक्खहो पहरणु मेल्लिउ । ___ माहवेण पिरिवरु परिऐल्लिउ । ।
म पीडा तरेप समन्थई।
अरियणु मोहिउ मोहण अत्थई ।। छ।। इय एक्केण एक्कु णउ जिज्जइ एक्कें एक्फुणे सत्थे भिज्जइ। एक्के-एक्कहो बलु ण कलिज्जइ एक्के-एक्कही माणु 'मलिज्जइ। एक्के-एक्कु ण रणेज हटाइ पहरें-पहरें अवणीमलु फुट्टइ। पहरें-पहर ण मम्मु वियट्टई पहरे-पहरे वंभुडु वि तुट्टइ। पहरें-पहरे विभिउ अमरहूँ मणे पहरें-पहरें संसिउ विहि रिउ-जणे। जं दिवत्थु सिरीहरु पेसइ
तं लीलएँ रइरमणु बिसेसइ। ता कंसारि चित्तें चिंतादिउ केणत्थेण एह णउ पाविउ । अइ अच्चरिउ वि किण्णउ लक्खिउ । णिय कुलु दिव्व सरहँ जं रक्सिउ । गय अकियस्थ सत्थ जाणेविष्णु अइ-कुविएण किवाणु लएविणु। धाराधरु-सजलु वि णं जलहरू असणि समुज्जलु दिनु जय सिरिहरु ।
(12) माधव ने सहस्राक्ष बाण छोड़ा, उसके उत्तर में प्रद्युम्न ने मोहनास्त्र एवं दिव्यास्त्र छोड़े। उनके भी विफल
होने पर कृष्ण ने चर्म-रत्न धारण कर कृपाण से युद्ध किया चतुष्पदी—पुनः माधव ने अपना सहस्राक्ष नामक प्रहरणास्त्र छोड़ा जिससे पर्वत पिल पड़े। तब उस स्मर–प्रद्युम्न
ने अपना शक्तिशाली मोहनास्त्र फेंका जिससे अरिजन मोहित हो गथे। इस प्रकार एक से एक नहीं जीत पाते थे। एक के शस्त्र से दूसरे का इस्त्र भग्न हो जाता था। एक से दूसरे का बल नहीं जाना जा रहा था। एक के द्वार, दूसरे का मान-मर्दन किया जा रहा था। एक के द्वारा दूसरा रण से नहीं हटाया जा पा रहा था। उन अस्त्रों के कारण क्षण-क्षण में अबन्दीतल फूट रहा था। प्रहारों से
में भवन ध्वस्त हो रहे थे। ब्रह्माण्ड भी टटता सा प्रतीत हो रहा था। प्रहर-प्रहर में देवों का मन विस्मय से भर उठता था। प्रहर-प्रहर में रिपुजन भी उस युद्ध विधि की प्रशंसा कर रहे थे। जो-जो दिव्यास्त्र श्रीधर कृष्ण ने भेजे, रतिरमण—प्रद्युम्न उनको लीला पूर्वक निरर्थक कर देता था। तब कंसारी (कृष्ण) ने अपने चित्त में चिन्ता की कि अब किस अस्त्र से इसे पाया जाय? यह देखकर कृष्ण को बड़ा आश्चर्य हुआ कि जिस दिव्य-बाण से अपने कुल की रक्षा की जाती थी वह भी व्यर्थ सिद्ध हो गया। फिर अति कुपित होकर कृष्ण ने कृपाण हाथ में लिया। वह ऐसी प्रतीत हो रही थी मानों धराधर सजल मेघ ही हो, अथवा श्रीधर—कृष्ण की दृढ़ रूप से जय का समुज्वल प्रतीक ही हो। किंकिणी तथा सैकड़ों चमरों से सुशोभित घरघर शब्दों से भरा हुआ
(12)!.अ. 'ग। 2-3. अ. * |