________________
266]
महाका सिंह विरइज पन्जुण्णचरिउ
[13.9.15
&15
आयामिउ मणमहु महुमहेण भिउडच्छि करालहँ जम णिहेण" । णव णिसिय सुणिच्छिडहँ सरसएहिं हउँ वम्म-पएसहु दुज्जएहिं । अवरेद्धउ अवरे आयबत्तु
रहु सहउ संसारहि महि समत्तु । परियणु पहि राउ रुव णिय गत्तु वेवंतु वलंतु वि जीव चुतु । घत्ता- वेढिउ चउ पासहिं वाण सहासहिं रइवरु रेहइ समरे कह।
विसहरहँ असेसहँ सव्व पएसहँ णं कालायरु रक्खु जह।। 248 ।।
20
चउप्पदी--- ता अवरहि रहे चडेविणु।
णियव किण्ह समउ पयडेविणु । । पेछिवि हरिणा णिय रहु खंचिउ।
माया-विहणं को जब वंचिउ।। छ।। ता मुणिऊण पवंचु वि कण्हई। रण रसिएण सु जयवहु तण्हई। 'सुइ विइयरु-रहु दिव्व-महारहि चडेवि तुरंतइँ वुत्तु ससारहि ।
रहबरु वाहि-वाहि लहु तेत्तहिं मायारउ-रिपु दीसइ जेहिं । वह कृष्ण उसके सम्मुख चल दिया। उस मधुमथन—कृष्ण ने यमराज के समान भृकुटि तानकर, विकराल आँखों से उस मन्मथ—प्रद्युम्न (की शक्ति) को तौला और नदीन तीक्ष्ण सैकड़ों दुर्जय बाण प्रद्युम्न की ओर मारे । किसी के ध्वज, किसी के छत्र और किसी के साथी सहित रथ पृथिवी में समा गये। मार्ग में परिजनों एवं राजाओं के रूप बदल गये और काँपते, लड़खड़ाते हुए उन्होंने प्राण छोड़ दिये। चत्ता- समर में चारों ओर से (कृष्ण के द्वारा छोड़े गये) सहस्रों बाणों द्वारा वेष्टित वह रतिवर—प्रद्युम्न किस
प्रकार सुशोभित हो रहा था? उसी प्रकार, जिस प्रकार कि समस्त प्रदेशों में व्याप्त विषधरों वाला कालागरु-वृक्ष सुशोभित होता है।। 248।।
(10) कृष्ण ने आग्नेयास्त्र छोड़ा तब प्रद्युम्न ने भी उसके विरुद्ध तैयारी की चतुष्पदी-~~-तब उस प्रद्युम्न ने अपने रूप को कृष्ण के समान प्रकट किया और शीघ्र ही वह दूसरे रथ पर चढ़ा।
माया-विधान द्वारा किसी के द्वारा ठगा जा रहा हूँ, यह देखकर कृष्ण ने भी अपना रथ खींचा।। छ।। तब जय रूपी वधू के प्यासे रणरसिक दिव्य महारथी कृष्ण ने प्रपंच जानकर अपना पूर्व रूप छोड़ा और तुरन्त ही दूसरे रथ पर चढ़कर अपने सारथी से बोला—"रथवर को वेग पूर्वक वहाँ हाँको–हाँको जहाँ मायारिपु दिखायी दे रहा है।" ऐसा कहकर उसने धनुष पर डोरी चढ़ाई और शंख ध्वनि की। वह (शंख ध्वनि) ऐसी प्रतीत हुई मानों समुद्र ही गरज उठा हो। भट-वृन्दों ने कोलाहल किया। आकाश को फोड़कर झुका देने वाला तूर-निनाद
(9 (2) सदृशेन । (3) कम्पनन । (103 (1) गैस । {2) एषः मृतः ।
(10) 1. अ"
। (2) अ. न'।