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महाकद सिंह विरहाउ पज्मुण्णचरित
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चप्पदी- अद्धइंद लहु लेवि पमुक्कउ।
चंचलु-विजु-दंडु इव ढुक्कउ।। छिण्णु-सरासणु कण्हहो करि थिउ।
णं णिद्दइ वहं धणु दइव हउ ।। रोसंधएँ विभिय माणसेण
धणुहरुवि गहिउ जा अवरु तेण। ता छिण्णउ रूविणि तणुरुहेण पुणु हसिङ विछपण-ससि सम मुहेण । भणु-भणु पइँ एउ विणाणुवरु कहिं सिक्खिउ को किर तुज्झ गुरु । नहुँ एह जायवहिमि पंडवहूँ
कुरुहिमि किय रिउ सर मंडदहूँ। णिरु अत्थ-सत्थ संगरि णिउणु जगे विरइय कितिहि तणउ गुणु। णिय धणुह वि रक्खहु ण उत्तरही अस भुटु चित्तो मा वावरही। जो रण भड़-थड-कड गउ सहइ सो कि जीदहुँ जगे णउ लहइ। तुव कंजु ण भज्ज सहोयरहँ किं करहि गरिदह सहयरहँ ।। जा जाइवि जीवहि भुजि सुहु इय उवहसियउ असहंतु दुहु। हरिमणे कोवाणलु पज्जलिउ दिक्करि-करि अहिमुह जि चवलिउ ।
प्रद्युम्न कृष्ण के धनुष को छिन्न-भिन्न कर उन्हें ललकारता है । कृष्ण भी पुन: प्रद्युम्न पर आक्रमण करते हैं चतुष्पदी—अर्धचन्द्र (धनुष) शीघ्र ही लेकर, क्रोधित वह चचंल (मदन) विद्युदण्ड की तरह घुसा और कृष्ण के हाथ
में स्थित धनुष को छिन्न कर स्थित हो गया, मानों निर्दय दुर्दैव ने ही उसे नष्ट कर दिया हो।। छ।। रोषान्ध उस कृष्ण ने विस्मित मन होकर दूसरा धनुष-बाण ले लिया। तब पूर्णमासी के चन्द्रमा के समान उस रूपिणी पुत्र ने हँसकर उसे भी काट डाला और बोला—'हे विज्ञान प्रवर (कृष्ण), तुम यह तो कहो कि यह धनुष चलाना तुमने कहाँ सीखा है? कौन तुम्हारा गुरु है. तुम यादवों के एवं पाण्डवों के स्वामी हो, तुमने कुरुभूमि में रिपु को शर-मण्डपों से आच्छादित किया था। तुम शास्त्रार्थ एवं संग्राम (दोनों) में ही निपुण हो । तुमने अपने कीर्तिमान गुणों से जगत को प्रकाशित किया है। किन्तु अब अपने धनुष की रक्षा करो। तुम्हारे उत्तर की आवश्यकता नहीं। इस प्रकार भद्र चित्त होकर चुपचाप मत बैठो। जो भट समूह रण में सुशोभित नहीं होता वह इस संसार में जीवित रह कर क्या करेगा? तुम्हें अपनी भार्या, सहोदर, सेवकों, नरेन्द्रों एवं सहचरों के जीवित रहने से क्या प्रयोजन? अब तू अकेला ही जा और जीवित रहकर सुखों का भोगकर।" इस प्रकार कहकर उस प्रद्युम्न ने कृष्ण का उपहास किया। कृष्ण प्रद्युम्न के उस उपहास का दुःख सहन न कर सके। वह अपने मन में कोपानल से प्रज्ज्वलित हो उठा और दिक्करी की सूंड के समान तथा अहिमुख के समान चपल भुजाओं वाला
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) प्रवर्त।