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महाक सिंह विरउड पज्जुण्णचरिउ
[13.8.6
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कहिंपि ण दीसइ एन्धु सणेहु चवंतहँ हासउ लोपहँ एहु। विहंजिय भंजिय दिव्व-हयोह णिहोडिय मोडिय-रहवर जोह । दिसिव्वल दिण्ण परिद करिद जमाणणु पत्त सहोयरविंद । महा-भड वीर रणम्मि समत्त मणोहर इट्ट सुहित कलत्त। परं जुद बंधुहो एरिस लील कहेहि विवक्खुहु केहिय कील । ण सक्कहि-थक्कहि छंडहि चाउ'1) म दोल्लहि-मेल्लहि एहु पलाउ । चएहि महाहउ दूसहु अज्जु तुमंपि सभज छलेण ण कज्जु । तउ रिउ वयण विलक्खिउ वित्तु हरिव्वहु आसणु जेम पलितु। चडाविवि-चाउ पिसक्क सएहिं पिहंतु णहंगणु वज्ज माहिं। जलंपि थलंपि णहंगणु तंपि
सो मग्गु-अमग्गु ण पूरिउ अंपि । घत्ता-., ता मयणेण णिएविणु णं सावण-घणु हरिसरेहि बरिसंतउ।
आयड्ढेवि धणुहरु परिहग्गल करु थिउ अहिमुहुँ वि तुरंतउ।। 247 ।।
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बोला—“यहाँ (इस समरभूमि में) तो मुझे स्नेह कहीं भी दिखायी नहीं दे रहा है।" इस प्रकार कहकर उस (प्रद्युम्न) ने लोगों को हँसाया। पुन: उसने कहा----"जिसने दिव्य हय-समूह विभक्त कर भग्न कर दिये, दिव्य रथ-समूह निहोड़ (तोड़) डालें, योद्धागणों को मरोड़ डाला, नरेन्द्रों को (अज्ञात) दिशाओं में ठेल दिया। करीन्द्र भी नष्ट कर दिये, सहोदर वृन्द, यम के मुख को प्राप्त करा दिये । महाभट वीर रण में समाप्त हो गये। मनोहर एवं इष्ट कलत्र जनों के हृदय भग्न कर दिये। किन्तु (एक दूसरे के लिए अनजान) इन बन्धुओं की ऐसी लीला है, तब कहो कि यात्रुओं की कैसी कीड़ा होती होगी? यदि तुममें सामर्थ्य नहीं हो तो ठहरो, जाओ चाप छोड़ दो, (बढ़-चढ़कर) बोलो मत, यह प्रताप बकवास भी छोड़ दो। इस दूषित महासंग्राम को भी आज ही छोड़ दो और तुम भी भार्या सहित हो जाओ। अर्थात् तुम मेरे सामने आत्म-समर्पण कर दो तो मैं तुम्हारी भार्या को तुम्हें सौंप दूंगा। इसमें छल प्रपंच का काम नहीं है। रिपु (प्रद्युम्न) के वचन सुनकर हरि व्याकुल-चित्त हो गया जिस तरह अग्नि भभकती है, उसी तरह हरि अपने आसन पर ही भड़क उठा, उसने चाप को चढ़ाकर इब्रमय सैकडों शरों के द्वारा नभ रूपी अंगण को ढंक दिया। जल, स्थल एवं नभांगण का ऐसा कोई भी मार्ग-अमार्ग नहीं बचा, जिसको उन शरों ने न पूर दिया हो। घत्ता- तभी मदन (प्रद्युम्न) ने देखा कि हरि कृष्ण श्रावण-मास की घन-वर्षा के समान ही बाण-वर्षा कर
रहा है। तभी ऐरावत हाथी की सूंड के समान बाहु वाला वह मदन तुरन्त ही अपना धनुष खींचकर उसके सम्मुख हो गया। ।। 247 ।।
(8) 3-4. अ. . | 5. अ. ५', 4 सि । 6. द' सु।
(४) (2) समा२।। 43} घनुप।