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13.8.5]
महाकइ सिंह विरह पम्जुण्णचरित
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जं फंदइ महो णयणु सवाहु वि वार-वार पुलइज्जइ देहु वि । ता मारुविक पडिवयणु पयंपइ तुज्झ पयावें को णउ कंपइ। रिउ णिहणेसहिं जित्त महाहव रूविणि तुज्झ मिलेसइ माहवि । इय अण्णोण्णु सुमहुरालावहिं। आहासंति वेवि 'सुहभावहिं। ता तइलोक्क दमणु सुमहंतउ तो णा भुव दिदु वद्ध तुरंतउ।
थिउ सव डम्मुहु रण-महि-मंडवि चवइ कण्हु मच्छरु भणे ठंडवि । घत्ता– हियय कलत्तहो पाणपिय णिय सयण भड़-हय-गय-रहबर ।
तो णउ तुववरि कोहु महो हवइ ण किं जाणमि पर ।। 246।।
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चउप्पदी.- 'लहु समप्पि महो पिययम मणरि ।
णेहंधुवि आहासइ इय हरि।। जे मुअ ते मुव किं करणिज्जइ ।
जाहि म तुव वलु रणउहे।' झिज्जइ ।। 5 सुणेवि हसंतु पयंपई मारु वलुद्धरु-दुद्धर जो जयसारु । सुनकर मार (मदन) ने भी प्रत्युत्तर में कहा-"आपके प्रताप से कौन नहीं काँपता? महायुद्ध को जीतकर (जैसे ही) आप शत्रु को मारेंगे। वैसे ही हे माधव, आपको रूपिणी मिल जायगी।" इस प्रकार शुभ-भावना पूर्वक वे दोनों ही परस्पर में मधुरालाप करने लगे। तभी, त्रैलोक्य-दमन करने वाला तथा दृढ भुजबन्ध वाला वह महान् कृष्ण तुरन्त ही सभी के सम्मुख रण में आसन मॉडकर स्थित हो गया और (प्रद्युम्न) से बोला – अपने मन के मत्सर को छोड़ो। घत्ता...- प्राणों से भी प्रिय मेरी कलत्र का अपहरण कर दिया. अपने स्वजन. भट. हय. गज एवं रथवरों को
भी नष्ट कर दिया, तो भी तुम्हारे ऊपर मुझे क्रोध नहीं हुआ, क्योंकि मैं तुम्हें कोई दूसरा नहीं मान रहा हूँ।" ।। 246।।
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प्रद्युम्न कृष्ण को पराजित कर उसे आत्म-समर्पण की सलाह देता है, किन्तु उसकी अस्वीकृति पर वह
(प्रद्युम्न) अपना धनुष खींच लेता है चतुष्पदी—पुनः स्नेहान्ध उस कृष्ण ने (प्रद्युम्न से) कहा—"अब तुम मेरी मनोहरी प्रियतमा (रूपिणी) मुझे शीघ्र
ही सौंप दो। जो (किंकर) मर गये सो मर गये (अब उनके लिए) क्या किया जाय? (अच्छा, अब)
जाओ तुम्हारी सेना को रणभूमि में जूझने की आवश्यकता नहीं।" ।। छ।। कृष्ण का यह कथन सुनकर दुर्धर बलधारी एवं जो जगत में सारभूत है वह मार (प्रद्युम्न) हँसता हुआ
(7) I. ब. मुं। (8) 1. ब त": 2.
( I) भुजा । (2) अ प्रद्युम्न । (a) (1) रणसमूहे।
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