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महाकह मिह विरराज पण्णचरिउ
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णिएवि ताउ सकसाउ दुद्धरे भुवण डमरु विरयंतु रण भरे। घत्ता— ता मेल्लेवि महाकार वत णिज्जिय हरि लहु आरूडु महारहि ।
____ अंवरे सुर-रमणिहि जिय णह दुमणिहिँ चवइ व किं होसइ सहि।। 245।।
(7)
चउप्पदी– पुणु पणिज्जइ सरेण स सारहि ।
आयावसि हरि सरहु स सारहि ।। कायरहो वि म रहवरु वाहहि ।
थिरु विक्कमहि तेण हय-सारहि ।। छ।। जह सरेण रहु अहि मुहु किज्जइ तह केसव-सरीरु पुलइज्जइ। फंदइ दाहिणु णयणु सवाहु वि णं कहंति तुब गंदणु रहु वि। ता सिरिहरेण वि सुउ पणिज्जइ भोय णउ तुज्झु गुज्झु रक्खिज्जइ । हणिय सुहड णिहणिय भड-रह-गय कवलिय-दलिय सपण सहयर सप। समर सज्जु थिउ अरिउ दुम्महु इय मंगलु कि जंपइ महु महु ।
दिया। यह देख कर उस मन्मथ (प्रद्युम्न) ने भी विषघ्न आयुधों से ससैन्य उस कृष्ण सेना को ढंक दिया। उस दुर्धर रण-भार को क्रोध-कषाय पूर्वक देखकर उस कृष्ण ने भुवन को कम्पित कर देने वाला डमरु (रणभेरी) बजाया। घत्ता-- निर्जित बल (सेना) वाला हरि (कृष्ण) महागज छोड़कर तत्काल ही महारथ पर सवार हुआ। (अपने
सौन्दर्य-तेज से) नभ-सूर्य को भी जीत लेने वाली सुर-रमणियाँ आकाश में कहने लगी कि “अब क्या होगा, अब क्या होगा?" ।। 245।।
समर-भूमि में दाएँ अंगों के फरकने से कृष्ण को किसी मंगल-प्राप्ति की भावना जागृत होती है चतुष्पदी-पुनः स्मर (प्रद्युम्न) ने अपने सारथी से कहा-"सुशिक्षित घोड़े जुते हुए अपने सारभूत रथ को
चलाओ।" कायर होकर रथ मत हाँकना। (यह सुनकर) उस सारथी ने भी धैर्यपूर्वक एवं
अवसरानुकूल उस हय-रथ को हाँका.। ।। छ।। जैसे ही स्मर ने रथ को कृष्ण के सम्मुख किया, वैसे ही केशव का शरीर पुलकित हो उठा। दाहिना नेत्र फड़कने लगा। साथ में दाहिनी भुजा भी फड़कने लगी। मानों वे कह रहे हों कि यही तो (सम्मुख आया हुआ) तुम्हारा नन्दन है। तब उस श्रीधर (कृष्ण) ने भी उस पुत्र (प्रद्युम्न ) से कहा हे जन, तुम अपने को गुप्त ही रखे रहे, इस कारण अपने सुभट मारे गमे, भट मारे गये, रथ एवं गज नष्ट हो गये। सैकड़ों हजारों स्वजन कवलित एवं दलित कर दिये गये । भयानक शत्रुओं के लिये भी दुर्दमनीय समर की रचना की। ये मंगल बार-बार क्या सूचना दे रहे हैं? मेरा दायाँ नेत्र एवं भुजा फरक रही है एव देह भी बार-बार पुलकित हो रही है। यह