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13.6.13]
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महाकङ सिंह विरइउ पज्जुण्णचरिउ
(6)
अबलोयइ चउपासहि महु-महु जहिं जि जहिं, पर करंक उक्कुरडई पेछइ तहिं जि तहिं । अइ-परिहउ असहंतु करिंदहो उयरि वि, झत्ति वलग्गु महारहि धणुहरु करे करेविं । । छ । पंडवाइ जं णिहिय वर भड़ा तासु सु महुहु पराउ फण कडप्पु फणिवइहिं ताडए पलय-पवणु पवहंतु वालए कवणु जलहिं चुलुएण सोसए को पडु जमदंडु खंडए इय भणेवि धणु झत्ति सज्जिउ पूरिमं पि जल-थल सुणहयलं सर-सएहिं सछण्णु मणमहो
चउष्पदी—
( 6 ) 1. अ. " |
पिएवि गहिर अइ - रुहिर रणे छडा । कहिमि पाव वच्चहिं अघाइउ ।
सुर- करिस्स को दसण मोडए । णिय वलेण महिवीदु टालए। हुववहोब इंधणेण तोसए ।
भए समाणु रणु कवणु मंडए । गुण- रवेण णं उवहि गज्जिउ ।
कंबु सरेण किय अमर कलमलं । साउहो ससेण्णो विसहरहो ।
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तुमुलयुद्ध - पराजित बल, हरि महागज- छोड़कर महारथ पर सवार होते हैं
चतुष्पदी – मधुमथन (कृष्ण) चारों पार्श्वों से जहाँ-जहाँ भी देखता था वहाँ वहाँ नर करंकों को उत्कट रूप से रोते हुए ही देखता था। अपने अत्यधिक परिभव को सहन न कर वह हाथी से उतरा और धनुष-बाण हाथ में लेकर झट से झपट कर रथ पर जा चढ़ा छ ।।
रण-क्षेत्र में पाण्डवादि जो महाभट मरे (जैसे ) पड़े थे, उनको भी अत्यन्त गहरे रुधिर से लथपथ देखकर
रोष सहित दौड़ कर मधुमथन वहाँ जा पहुँचा। वह पाप वचनों से नहीं अघा रहा था । ( अर्थात् अधिक पापवचन बोलते हुए वह तृप्त नहीं हो रहा था ) | ( वह गरज - गरज कर कह रहा था कि ) मुझ फणपति के कड़कड़ाते फ को कोई तोड़ सकता है? ऐरावत हाथी दाँतों को कोई मोड़ सकता है? (उस कृष्ण के वेग में आने के कारण ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानों उस रणभूमि को) प्रवहमान प्रलयकालीन (प्रचण्ड) वायु जला डालना चाहती हो । उस (कृष्ण) ने अपने बल से पृथिवी तल को टलटला दिया । समुद्र को चुल्लू से कौन सुखा सकता है? ईंधन से अग्नि को कौन सन्तुष्ट कर सकता है? प्रचण्ड यमदण्ड को कौन खण्डित कर सकता है? रणभूमि को मेरे समान कौन माँड (रच) सकता है? ऐसा कह कर ( उस कृष्ण ने ) धनुष को तत्काल ही सज्जित किया। उसकी
के शब्द से ऐसा प्रतीत हुआ मानों समुद्र ही गरज उठा हो । उस ध्वनि ने जल, थल एवं आकाश को भर दिया। (यह देखकर) अमरों में शंख के स्वर से कोलाहल किया और सैकड़ों बाणों से प्रद्युम्न के सैन्य को ढँक