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________________ 13.1.11] 5 10 महा सिंह विरश्य पज्जुण्णचरिउ देखी संधी (1) ध्रुबकं - किहहो कुसुमसरो बलहॅ रणआढत्तु घोरु सुपयंडहँ । हय-खुरहँ रहँ गथ पर पयहँ उच्छलिउ ("" रेहइ थिउ अंतरेविह सेण्णहें उसार मा रणु महो रण - डिंडिम- रवेण (3) आहासइ महो वयणेण चवहि कड-मद्दणु तुज्झु जि किं अवसरु एउ समरहो इय जंपंतु विरउ रणे पेल्लिउ सुहडहँ अहिणव-वण रुहिरेण वि चप्पिउ एउ महारउ चक्कइँ वारइ कहिमि कोवि मज्झत्थउ (1) 1. अ. य. न० रण-वर्णन भंडहँ । । छ । । मण्णहँ । (2) जयलुद्ध अइउण्णर्य मुवहु को पहरणइ मिछंडहो । 'रयहो (4) अघाणु कण्डु') इस भासइ । अवरुद्धेहिं झत्ति णिय-णंदणु । सुर - विसहर र दरसिय डमरहो । करि कवोल मय सल्लिई रेल्लिउ । हय-मुह-गलिय पउर फेणेण वि अवरु वि जो रिउ रण उहे थक्कहूँ । सो पावs इस विविहावत्थउ । तेरहवीं सन्धि (1) समरभूमि में दोनों शत्रु सेनाओं के बीच की अन्तर्भूमि की दुखद अवस्था का कवि द्वारा मार्मिक चित्रण [ 25s ध्रुवक— कृष्ण की सेना और कुसुमसर — प्रद्युम्न की सेना ने घोर प्रचण्ड रण आरम्भ किया। घोड़े खुरधरों ( घोड़ों) से गज गजों से, नरप्रवर नरप्रवरों से और पदाति पदातियों कर लड़ने लगे । । छ । । ब्रह्माण्ड तक उछल उछल जयलुब्ध अति उन्नत मनवाले दोनों सैन्यों के बीच में स्थित अन्तर सुशोभित हो रहा था। वह (अन्तर ही ) मानों कृष्ण से कह रहा था कि क्रोध का त्याग करो, प्रहरणास्त्रों को छोड़ो, लड़ने मरने-मारने में कोई सार नहीं । अथवा रण में डिण्डिम रव के माध्यम से ही मानों वह कह रहा था कि हे कृष्ण, तुम अपनी विजय में अजान ही हो ( अर्थात् तुम विजेता नहीं बन पाओगे)। अथवा वह अपने महान् (उच्च) स्वर (वचन) से कह रहा था कि हे कंस - मर्दन, तुम युद्ध का त्यागकर शीघ्र ही अपने ( प्रतिपक्ष रूपी) नन्दन का आलिंगन करो । देवेन्द्रों, नागेन्द्रों एवं नरेन्द्रों को भयंकर रूप दिखाने वाले हे कृष्ण, क्या यही अवसर तुम्हारे लिये युद्ध करने का है ? इस प्रकार कहते हुए तथा रण से विरत रहते हुए भी उस ( अन्तर ) को रण में पेल दिया गया। हाथियों के कपोल मद जल से भीग गये। सुभटों के अभिनव व्रण, रुधिरों से भर गये, घोड़ों के मुख से गलित प्रचुर फेन से भूमि भर गयी । महारयों के चक्रों तथा और भी जो रिपु रणभूमि में खड़े थे, उनसे यह पृथिवी चँप गयी । जो कोई कभी मध्यस्थ बनकर किसी को रोकता है, वह इसी प्रकार की विविध अवस्थाओं को प्राप्त करता I (1) (1) धूलीरउ (2) दोपर्वनाम (3) मध्येन । (4) रजः जगत्रयग्य कथयति । ( 5 ) एष कृष्ण-जजन ।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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