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12.28.13]
महाकद सिंह विरहउ पपणचरित
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(28) एत्तहिं कुसुम-रसे। तुरंत
रायणगणे जागवि बिहसंतई। भुणिप्य पुरइं-मुक्कलहु मायरि पणवइ 'सा सविणय णिय भायरि । सुण्हई अहिवायणु सासुहे कि
ताम मयणु रण महि मंडेवि थिउ। कण्हहो-वलु णिएवि सणउ गजोल्लि मणेण मयरद्धउ। हरिसेण दोसम्मु णिग्मिउ साहणु विज्ज-पहावइँ हय-य-वाहणु। ते जि चिण्ह सिंगार जि तेवर पडिणरिंद इव णरखर किंकर । भड-भडहिमि समाण णिरु णिम्मिय समर सज्ज होएवि सयल थिय । केवि धावंति वीर जय लालस पुणु वलंति पहु आण परब्वस ।। णिय-णिय मंदिर वरि जुबईयणु अवलोमंतु चवइ दुम्मिय मणु । हा-हा-हा पयंड जग सुंदर
मरिहीसंति अकारण णरवर। इय णिसुणंत वपणु तिय-विंदहो परिधाइय चमु रणे गोविंदहो। घत्ता.... पिटिए परोपा लेदि तेण समरे रेहति कः।
विप्फुरंत रुंजत वा वरमड सीह अह ।। 239।।
(28) अपने नभोयान में, विद्या के प्रभाव से प्रद्युम्न रूपिणी को छोड़कर गोविन्द—कृष्ण से दुगुनी सेना एवं
साधन निर्मित कर युद्ध-भूमि में कृष्ण-सेना से जा भिड़ता है इसी बीच कुसुमशर (प्रद्युम्न) ने तुरन्त ही गगनांगण में जाकर हँसते हुए अपनी माता (रूपिणी) को मुनि (नारद) के चरणों के सामने छोड़ दिया। उसने भी अपने भाई को विनय सहित प्रणाम किया। बहू ने सास का अभिवादन किया। तत्पश्चात् मदन (लौटकर) रणभूमि को माँड कर स्थिर हो गया। कृष्ण की सेना को सन्नद्ध देखकर उस मकरध्वज का मन गूंज उठा। विद्या के प्रभाव से उस प्रद्युम्न ने कृष्ण की सेना से द्विगुणित सेना एवं हय, गय, वाहन आदि साधन तैयार कर लिये। इतना ही नहीं उसने कृष्ण की सेना के समान वैसे ही चिह्न, शृंगार-सजावट, नरवरों के समान प्रतिनरेन्द्र, किंकर भी कर लिये। भटों के समान भट बना लिये जो सुसज्जित होकर समर में खड़े हो गये। (उनमें से कोई-कोई वीर जय की लालसा से दौड़ने लगे। किन्तु प्रभु की आज्ञा के परवश होकर उन्हें लौटना पड़ा। अपने-अपने महलों पर युवतिजन उन्हें देखती हुई दुःखी मन होकर कहने लगी...-"हा-हा-हा, प्रचण्ड एवं जगत में सुन्दर (अनेक) नरवर अकारण ही इस (युद्ध) में मरेंगे।" महिलाजनों के इस प्रकार के वचन सुनकर भी गोविन्द—कृष्ण की सेना युद्धक्षेत्र की ओर झपटी। घत्ता--. रणभूमि में परस्पर में भिड़ी हुई दोनों सेनाएँ किस प्रकार सुशोभित हो रही थीं? उसी प्रकार जिस
प्रकार कि स्फुरायमान एवं गरजता हुआ तथा (ग्जों को—) विदारता हुआ भट –सिंह सुशोभित होतः है। ।। 239 ||
(28) | यम।