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________________ 252) महाका सिष्ठ विरराज पज्जुष्ण रेउ [12,27.1 (27) मय-जलेण रेल्लाविउ महियलु उवरि वलग्ग जोह कय कलयलु । मधुवंत पवणइँ पेल्लिय एण संघल्लिय गय घड़ जुज्झण मण। हरि खुर खोणि खणंत पधाइय हिलिहिलंत भुवणयले ण माइय । पंच-वण्ण वर-धयहिं पसाहिया) दिव्य-महारह रहियहि वाहिय । ता रउद्दु रणवर पजिउ णं अयस्कुई जलणिहिं गज्निउ । विज्जाहर सविमाणु सुणहयले 'चल्लिउ चाउरंगु-बलु महिषले। ता दुनिमित्त समुठिय अंतरे णं चवंति मालग्गहु रणभरे । रसइ-रिठ्ठ सिव फिक्कारइ णिरु णडइ कवंधु वि विक्खोलइ करु । कुहिण्णि छेउ पयडइ फण जंतहँ गिद्ध-पंति थिय परवइ छत्तहँ । पत्ता.- इय अणिमित्त महंत हरि विरुद्ध अबगण्णई। अइ वेहाविय चित्तु भणु जयम्मि को मण्णा ।। 238।। 0 (27) ___ रण-प्रयाण के समय होने वाले अपशकुनों से हरि-कृष्ण का चित्त विह्वल हो उठा हाथियों ने मदजल से पृथ्वीतल में रेला (प्रवाह) कर दिया । योद्धागण कल-कल करके ऊपर उछलने लगे। जुझने की मन वाली, हाथियों की घटा इस प्रकार चली मानों प्रलयकारी झंझावात के द्वारा पेले गये काले मेघ ही हों। खुरों से पृथ्वी को खोदते हुए तथा हिलहिलाते हुए घोड़े इस प्रकार चले कि वे भुवनतल में समा नहीं रहे थे। रथवाहकों द्वारा उत्तम पंचरंगी ध्वजाओं से मण्डित दिव्य महारथ तैयार किया गया । रौद्र रणतूर बजा, मानों अकस्मात् ही समुद्र गरज उठा हो। विद्याधरगण आकाशमार्ग से अपनी चतुरंग सेना सहित महीतल की ओर चल पड़े। उस आकाश एवं महीतल के मध्य वह विद्याधर-समूह ऐसा सुशोभित हो रहा या मानों द्युमणि-सूर्य ही हो और जो मानों उन्हें कह रहा हो कि रण के झमेले में क्या पड़ रहे हो? कौवे काँव-काँव शब्द कर रहे थे. शिवा (शृगाली) लगातार फिक्कार रही थी और कबन्ध (धड़) हाथ फैला-फैला कर नाच रहे थे। जाते हुए कुहनी के छेदों से द्रण प्रकट होने लगे और नरपतियों के छत्रों पर गृद्ध पंक्ति बैठने लगी। घत्ता- इस प्रकार हरि—कृष्ण के विरुद्ध अनेक अनिमित्त-अपशकुन माने गये। जिनसे चित्त अत्यन्त विह्वल हो उठे। कहिए. कि संसार में कौन किसको क्या समझता है ।। 238 || 127) 1-2. अ. गं जुम्त । (270) मठिय। (2) रवाहे: - 3) स्था।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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