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________________ 248] महाकद सिंह विरहउ पज्जुण्णचरिज [12.22.7 ता जंपइ सरु सुणि परमेसरि जा लग्गिहइ प किर भाणुहि-करि । दुज्जोहण-सुय एंति वणंतरे हणेवि सेण्णु अइहरिय खणंतरे । घत्ता- ता रूविणिऍ पवुत्तु अई सउच्छु" मज्झु नि मणु । दावहि तुरिउ अणंग कहिं ससुण्ह कहिं भाइ मणु।। 233 ।। 10 (23) ता पडिवयणु पयपिउ मयणइँ कि लविएण भाइ इय वयण.। दुद्धर-सर-घोरणि संघहिं जा ण भिडिउ हय-गय-रह-थट टहिं । णिय-वलेण भड़ विंदु वि जगडमि पुणु पछइ अप्पाणउँ पपडमि। गं तो किं जपंतु पवुच्चमि पिउ-पियरहँ 'सयलहें विण परुच्चमि । चवइ रूवि की गुड जुन्डू पर इसापड- दत्त कोवि ण एब्जइ । वसुएवहो हरि-वलहँ दसारहँ पंडव-भोय. रणे अणिवारहँ। आहासिउ मुणि मणहमि सल्लई2 को पहरइ समाण जग मल्लई। मा सलहहि अइ दुद्धमु भड़यणु मज्झु मणहो णावई महिलायणु। णेमिकुमारु एक्कु मिल्लेविणु एंतु समग्गइँ पर चल्लेविणु। (सत्यभामा पुत्र) के साथ निश्चय ही अब कभी भी नहीं हो सकेगा। क्योंकि विवाहार्थ वह उदधिकुमारी जब वन में लायी जा रही थी, उसी समय मैंने दुर्योधन की सेना को मारकर उस कन्या का अपहरण कर लिया था। घत्त- तब रूपिणी ने कहा - "मेरा मन अत्यन्त उत्साहित हो गया है। अत: हे अनंग, अब तुम तुरन्त ही मुझे दिखाओ कि कहाँ है वह मेरी पुत्रवधू एवं कहाँ है मेरा वह भाई (नारद)?" || 233 ।। (23) प्रद्युम्न के पराक्रम से रूपिणी अत्यन्त प्रभावित होकर प्रमुदित मन से आशीर्वाद देती है तब मदन ने प्रत्युत्तर में कहा—"हे मात:, इस प्रकार के कथन से क्या प्रयोजन? भले ही मेरे पास हय, गज, रथों का समूह नहीं, फिर भी यह दुर्धर-स्मर (प्रद्युम्न) अकेला ही घनघोर रण में टकराता हुआ जा भिड़ता है। अपने बल से (पहले) भट वृन्दों को उजाड़ डालूँ तब पीछे अपने को प्रकट करूँ। नहीं तो, पिता, पितामह एवं स्वजनों आदि से मैं क्या कह कर परिचय देकर बोलूँगा? तब रूपिणी बोली—"बस बेटा, जो तुझे रुचे वहीं कर (मैं आगे नहीं बोलूंगी), परन्तु (इतना कह देती हूँ कि) यादव बल (सेना) किसी के द्वारा नहीं पूजा जायगा (अर्थात् वह तेरे बराबर नहीं होगा) चाहे वे रण में अनिवार वसुदेव हों, हरि हों, बलदेव हों, दशार राजा हों, पाण्डव हों या भोजक राजा। यह सुनकर मुनियों के मन में भी शल्य उत्पन्न कर देने वाले उस प्रद्युम्न ने कहा—"जगत में पराक्रमी मुझ पर कौन प्रहार कर सकता है? अत्यन्त दुर्दम समझे जाने वाले भटों की भी मेरे सामने प्रशंसा मत करो। मेरी दृष्टि में तो वे सभी मानों महिला जनों के समान ही हैं। एकमात्र नेमिकुमार को छोड़कर अन्य सभी आकर मुझे पीठ दिखाकर चलते बनते हैं। (22) (2) आगच्छता । (3) है। (23) 1-2. अ. साहिमि। 123) (I सम्मिगी। (2) कामेन।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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