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महाका गिधा पञ्जुषण गरिस
12.205
महुमहणहो एउ जेछु सहोयरु तुब पित्तियउ वि मा मण्णाहं पुरु । जणणि-वयणु सुणि रोमंचिउ सरु पल्लटिटउ खणेण णिय व वरु । थिउ पंचाणणु होवि वलुद्धरु दियाय जणियउ 'भउ अइ दुद्धरु । वाल-मयंक वंक दाहाल
कविल-केस कंधरु जडिलालउ। लोयण सिहि-फुलिंग इव दारुणु दीह-जीह णिरु णह-रुहिरारुणु। सिरु.वलइय सपुंछ रुजतउ चडुल चलणु दह दिहिहि' णियंतउ। घत्ता- 'हलि अवलोइय तत्थ पंचाणणु दारुण णयणु । कमु विरएविणु धक्कु भासुरु विष्फारिय श्यणु ।। 231 ||
(21) णिएवि मपारि पयंडु खणेण क्लेण विचिंतिय-चित्त) रणेण। तुरंतु पढुक्कु अहीमुह तस्स टलंति गिरीवर रुंजइ जस्स। वरीय सुहत्यु करामु वि लेवि असिव्व सुवासह जाम मिलेवि। हलीपहणेइ महीयले चंडु
विरुद्ध मयारि'"वि ताम पयंडु ।
मधुमथन कृष्ण का यह ज्येष्ठ सहोदर बन्धु है। तुम्हारा भी यह पितृव्य (चाचा) लगता है। इसे पर (दूसरा) मत समझो। जब माता के ये वचन सुने तो वह स्मर (प्रद्युम्न) रोमांचित हो उठा। उसने क्षण भर में ही अपना उत्तम रूप पलट लिया और विद्या-बल से वह्न महान् सिंह बनकर स्थिर हो गया। अति दुर्धर वह दिग्गजों को भी भय उत्पन्न करने लगा।
वह पंचानन बालचन्द्र के समान वक्र दाढ़ों वाला था, उसके केश कपिल तथा कन्धर, जटिल जटाओं से युक्त था। उसके लोचन अग्नि के स्फुलिंग के समान दारुण थे। जिह्वा दीर्घ तथा नख रुधिर के समान अत्यन्त लाल थे। सिर को घुमा-घुमा कर विशाल पूंछ वाला वह सिंह चपल-चरणों से दशों दिशाओं की ओर देखता हुआ जा रहा था। घत्ता- हलधर ने दारुणनेत्र वाले, भास्वर एवं विशालकाय पंचानन सिंह को देखा कि वह चलते-चलते रुक
गया है।। 231।।
(21) पंचानन हलधर को परास्त कर राजमहल में फेंक देता है बलदेव ने उसी क्षण प्रचण्ड सिंह को देख अपने मन में उसके रण का विचार किया। जिसकी रूंज (गर्जना) से पहाड़ भी टलटला जाते हैं, ऐसा वह (बलदेव) तुरन्त ही उस पंचानन—सिंह के सन्मुख जा पहुँचा। उत्तम श्रेष्ठ वस्त्र को कमर में लपेट कर महीतल में प्रचण्ड वह हलधर असि की तरह छुरिका को जब उस सिंह पर छोड़ता है और प्रहार करता है तब वह मृगारि भी उसके विरुद्ध प्रचण्ड रूप से बिगड़ जाता है। दोनों ही चलते
(20) 1. अ.
"मरु'। 2-3. अहहह। 4. अ. "हअललोइय' ।
(21)(1) सबसेण पठे। (2) वरीउत्तरासणेण । (3) रिफा। (4) सिंहअपि ।