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महाकइ सिंह चिरइज जतुपाचरिउ
गाउ सदेउ अबलोइउ दिउ
वह मग्गु विसुनहिं तुरंतउ भाइ ताव मायाभउ दिउ सच्च सुवहे परिणयण कारणं यि सुण हउँ एत्थु 'सुतउ
विप्प - वयणु सुणि कोह जुत्तउ परिसं पि जिमियं प दुहपरं
घता ... "लउलिमत्तु गुण अत्थि जाइ सहावइँ दिम्वरहें।
किं थिउ ।
भहि विघ्प तुहुँ एक् महुकिज्जु छइ इह महंत ।
अज्जु भोज्यु मिथ इच्छए किउ । जिमिउ तत्थ णाणण पयारणं । जाहि ताय वलि मइँ पउत्तउ । चव रामु ता णीससंतउ ।
होई कस्स कहि विप्ण सुहयरं ।
जह-तह णउ दीसेइ अण्ण गिद्ध (2) इहरह णरहँ ।। 229 ।। (19)
इय विताए कज्जु किं अम्ह णिसुगंतु वि महो वरुणु ण महिं महोमि कज्जु छइ किं इह मंदिरें
(४) । अत्तर ।
हि मग्गु उहि दियवर लहु । रे पावि काइँ अवगाहिं । गच्छमि केम धिट्ठ तुज्झोवरे ।
क्रोधित हो उठा। वह शीघ्र ही चला और उस द्विज को देखा और बोला — "हे विप्र तू अकेला क्यों पड़ा है? मेरी बात सुन और तुरन्त ही मार्ग छोड़ । यहाँ मेरा बहुत बड़ा कार्य है । "
[12.18.2
तब मायामयी वह द्विज बोला - " आज मैंने सत्यभामा के पुत्र (भानुकर्ण) के परिणयण के कारण उसके यहाँ अपनी इच्छानुसार नाना प्रकार का भोजन जीमः है और इसी कारण अब हे तात, अपने सुख - विश्राम के लिये वहाँ से चलकर आया हूँ और सो रहा हूँ । विप्र के मै वचन सुनकर वह राम - हलधर क्रोधित हो उठा और निश्वास छोडता हुआ बोला - " ऐसा जिमाया हुआ भी ( यदि किसी को ) दु:खकर होता है, तो हैं विन कहो कि सुखकर (भोजन) कौन सा होता हैं?" (घुन: गरजकर बोला --)
घत्ता -
मात्र लोलुपता ही तो द्विजवरों का स्वाभाविक गुण होता है। उनमें जिस प्रकार की गृद्धि होती है, वैसी अन्य मनुष्यों में दिखामी नहीं देती । " ।। 229 ।।
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हलचर उस द्विज के पैर पकड़कर खींच ले जाता है, किन्तु नगर के बाहर पहुँचकर वह आश्चर्यचकित हो जाता है क्योंकि उसके हाथों में द्विज के केवल पैर मात्र ही थे, शरीर के अन्य अंग नहीं
— " किन्तु इस भव - भोजन की चिन्ता से हमें क्या प्रयोजन ? हे द्विजवर जल्दी उठो और मार्ग दो ।" ( — अरे यह क्या -- ) सुनता हुआ भी मेरा आदेश नहीं मानता? रे पापिष्ठ, तिरस्कार क्यों कर रहा है? इस भवन में मेरा एक बड़ा महत्वपूर्ण कार्य है, किन्तु हे धृष्ट, तेरे ऊपर से मैं कैसे जाऊँ?" तब वह द्विज जग- -निष्ठुर उस
(18) (1+लेलित (2) हम्पट-पु (19) (1) भोजन चिंता ।