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12.18.1]
महाका सिंह विरहाउ पज्जुण्णचरित
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(17) माइ-माइ मा कि जंपहि तुहुँ खणु एक्कुवि पवंबु पेच्छिहि महु। झ्य भासेवि सविज्ज आएसिय जा संवरहो सेपणेचिरु पेसिय। तेण वि दियहो रूउ लहु लेविणु भुव जुवलु वि किस चलण करेप्पिणु । थूलोयरु सिरु चिहुर विहीणउँ कंपतु वि सव्वंगहँ खीणउँ। दुक्खहँ अवणीयले पउ दितउ उबरह पब्भारेण समंतउ। सच्चहरम्मि होतु पीसरियउ वेवंतु वि खलंतु किं तुरियः । रूविणि धवलहरम्मि दुव्वारइ पडिउ दडत्ति ण तणु साहारइ । थंभेदिणु वि धरिउ किंकरगणु एक्कु पणट्हु तेण णिविसें पुणु ।
कहइ देव दिउ दुव्बल-कायउ वारे पडिउच्छइ सुठु वरायउ। घत्ता– सो पइसारु पा देइ सामिय भणु किं किज्जइ । जो तुम्हहँ मणे जुत्तु सो आएसु पहु दिज्वइ ।। 228 ।।
(18) भिच्चु वयणु सुणि कुविउ हलहरो देह दित्ति जिय सरय जलहरो।
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(17) क्षुल्लक अपनी विद्या के बल से क्षीणकाय द्विज का रूप धारणकर रूपिणी के दरवाजे पर गिर पड़ता है ____"माँ-माँ तू कुछ मत बोल। क्षण भर में मेरा प्रपंच तो देख ।" यह कहकर उसने अपनी उस विद्या को आदेश दिया, जो कि चिरकाल पूर्व कालसंबर की सेना को (पराजित करने हेतु) भेजी थी। उसने भी शीघ्र ही द्विज का रूप धारण कर लिया। उसने अपनी भुजायुगल एवं चरणों को अत्यन्त कृश बनाया, पेट को मोटा बना लिया, सिर को केश रहित बनाया, इस प्रकार समस्त अंगों से क्षीण होने के कारण वह द्विज काँप रहा था। वह बड़े ही दुःख के साथ पृथिवी पर पैर रख पाता था। उदर के भार से वह सभी प्रकार से दु:खी था। वह (क्षीण काय द्विज) काँपता हुआ, लड़खड़ाता हुआ, तुरन्त ही सत्यभामा के घर से निकला और रूपिणी के धवल गृह के द्वार पर अपने शरीर को न संभाल पाने के कारण धम्म से गिर पड़ा। किंकरगणों ने थाँभ करके उस द्विज को पकड़ा पुनः एक किंकर निमिण मात्र में वहाँ से भागकर गया और कहने लगा— "दुर्बल काय वाला दीन-हीन बेचारा कोई द्विज द्वार पर गिरा पड़ा है।" घत्ता- “वह (किंकरों को) प्रवेश नहीं करने देता है। अत: हे स्वामिन्, कहिए क्या किया जाय? हे प्रभु, आपके मन में जो युक्ति हो उसी के अनुसार हमें आदेश दीलिए। ।। 228 ।।
(18) हलधर क्षीणकाय विप्र (प्रद्युम्न) पर क्रोधित हो उठता है अपनी देह की कान्ति से शरद ऋतु के मेघ को जीत लेने वाला हलधर भृत्य के बचन सुनकर अत्यन्त
(17) |. अ. खणछ।
(17) (I) -: मरतेन।