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________________ 242] महाकड सिंह विराज पन्जुण्णचरित [12.15.11 घत्ता- धाविचि रच्छजाइ वलइ धूलि-धूसर तणु। कंपेवि ज मे वि थाइ उल्हावइ मायहे मणु ।। 2261! (16) आहासइ आहारु समप्पहि दितु ण लेइ चवइ पुणु अप्महि । मम्मण-वयण अणेय पयासह सुमहुर सवण सुहावण भासइ । इयविभिउ पयइंतु अउच्वु वि हुउ जुवाणु मणहरु गुण' भवु वि । वड्ढइ बीय मयंकुव जेहउ विविहाहरण-विहूसिय देहउ। जो अणंगु महियले जाणिज्जइ तहो उवमाणु करणु किर दिज्जइ । अइ अच्चरिउ सुवहो पैक्खेविणु गुरु आणंदें अवरुडेविणु। उववेसिउ आणे मयरद्धा तासु सरह भुवणतउ विद्धउ। सुह-दुह संभासणु वि परोप्यरु दिद?"उ सुवउ जुण्णु हुत्तउ चिरु। गि देयंतइँ इय वच्छहिं ता किंकर- गणु एंतु णियच्छहिं। 10 धत्ता- मुक्क विरुद्धइँ हलहरेण उक्खयर वग्ग समाग णिएविणु। णिय जणणिए समाणु रइरमणु वि जंपइ विहसेविणु।। 227।। घत्ता... (कभी-कभी वह) रथ्या (गली) में भाग जाता था और वहाँ से धूलि-धूसरित शरीर होकर लौटता था। काँपता हुआ पैर जमा-जमा कर खड़ा रहता था और अपनी माता के मन को उल्लसित करता रहता था।। 226।। (16) __ हलधर क्रुद्ध होकर क्षुल्लक के विरोध में अपने खेचर-सेवक भेजता है (वह शिशु कभी—) बोलता था —"खाने को दे। किन्तु जब वह देती तब लेता नहीं था और पुन: माँगता था। अनेक विध मधुर श्रवण-सुखद एवं मार्मिक वचन बोलता था। इस प्रकार अपूर्व विस्मयकारी रूप प्रकट करता हुआ वह गुणवान भव्य मनोहर यूवक हो गया। विविध प्रकार के आभूषणों से विभूषित देह वाला वह युवक (प्रद्युम्न) उसी प्रकार वृद्धिंगत होने लगा, जिस प्रकार द्वितीया का चन्द्रमा। जो युवक महीतल में अनंग के नाम से जाना जाता था, अब उसकी उपमा और (उससे भी श्रेष्ठ) किस वस्तु से दी जाय? -पुत्र के ऐसे आश्चर्यजनक कार्यों को देखकर वह आनन्दातिरेक से भर उठी। जिसकी शोभा से भुवनत्रय बिंधा हुआ था ऐसे उस मकरध्वज - पुत्र को गले से लगाकर उसने उसे आसन पर बैठाया तथा जो कुछ चिरकाल से देखा, सुना एवं अनुभव किया था उन सुखों-दुखों का परस्पर में सम्भाषण करने लगे। इस प्रकार वत्स से वार्तालाप कर जब वह निश्चिन्त हो रही थी तभी उसने (हलधर के) किंकरगणों को आते हुए देखा। घत्ता- हलधर ने उस रूपिणी के विरोध में समग्र खचर वर्ग के सेवकों को छोड़ा। उनको देखकर अपनी माता के साथ वह रतिरमण (प्रद्युम्न) हँस कर बोला। ।। 227 ।। (15) 1. अ. कठ। 2. अ लगे। (16) 1. 8 गु। (16) 411 दृष्टं श्रुतं अनुभूत। (2) परस्पर मध्यानी पूर्व वृतान्त ।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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