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________________ 12.15.10]] महाकई मिह विरराज पाण्णारेउ [24] 10 घत्ता-- मइमि उबरे णवमास धरिउ पुत्त गुरु दुक्खइँ । बालत्तु वि णउ दिछु णयणहँ हुवई ण सोक्खइँ।। 225 ।। (15) णिय मायरिहिं वयणु णिसुणेविणु सुणि सुमाइ जइणिय मणे इंच्छिहि एउ वित्तंतु वि किं तुव दुल्लहु थिउ दिणमेक्क मेत्तु विरयवि तणु पुणु मासद्धमास कय संखइँ संवच्छरहें सु अद्ध पमाणिउँ णियलीलई रंगेविण थक्कई संवच्छरेण खलंतु पवोल्लइ जणपिहि-करि अवलंविवि धावइ तह-तह खणे मणे रोमंचिज्जइ पडिजेपइ मणसिउ विहसेविणु। दक्खालमि सिसु-कील णियच्छहि । आहासेवि एम जग वल्तहु। णं उग्रायलत्य मय-लंछ । भीसम सुय पहिठ्ठ-मण पेक्खइँ । णिम्मिऊ व कलहो समाणिउँ । ईसीसु विहसेवि मुहुँ वंकइ। उठ्इ पडइ सुकंपइ चल्लइ। जह-जह मयणु सिसुतणु दावइ । रूविणि णं अमियइँ सिंचिज्जइ । घत्ता... (पुन: वह बोली) ---"मैंने तो तुझे बड़े दुःखों के साथ नव मास तक अपने उदर में रखा। फिर भी हे पुत्र, मैंने तेरा बालपना नहीं देखा और मेरे नेत्रों को सुख नहीं हो पाया।" ।। 225।। (15) माता रूपिणी की इच्छापूर्ति हेतु वह अपने विद्या-बल से शिशुरूप धारण कर विविध बाल्य-लीलाओं से उसका मनोरंजन करता है अपनी माला के वचन सुनकर मनसिज—प्रद्युम्न हँस कर बोला—"हे माता, सुनो। यदि आपके मन में इच्छा है तो मैं आपकी इच्छानुसार ही शिशु-क्रीड़ाएँ दिखा दूँगा । क्या ये सब आपके लिए दुर्लभ हैं? इस प्रकार कहकर जग-दुर्लभ वह प्रद्युम्न मात्र एक दिन का (तत्काल का) शरीर बनाकर ठहरा। उस समय वह ऐसा प्रतीत हो रहा था मानों चन्द्रमा ही उदयाचल से उदित हो गया हो। पुन: उसने 15 दिन का, फिर 1 मास का, इस प्रकार संख्यात रूप बनाये और भीष्मसुला - रूपिणी उन्हें देख-देख कर मन में हर्णित होती रही। फिर उसने छह महीना का, फिर 12 महीने प्रमाण वाला कलधौत (सुवर्ण) के समान रूप बनाया। अपनी बाल्य-लीलाओं से रेंगते-रेंगते रंजायमान करते-करते वह थकता नहीं था। ईषत्-ईषत् हँसता हुआ वह अपना मुख बाँका (टेढ़ा) कर लेता था। वर्ष भर का होकर तोतली बोली बोलने लगा और (बार-बार) उठता. पड़ता था, कॉपता था, चलता था। कभी माता का हाथ पकड़ कर दौड़ता था और इस प्रकार जैसा-जैसा शिशुपना होता है वैसा-वैसा ही उस मदन ने भी कर दिखाया। जैसे-जैसे वह क्रीड़ाएँ-... करता था वैसे-वैसे ही क्षण-क्षण में वह रूपिणी भी अपने में ऐसी रोमांचित होती रहती थी, मानों अमृत से सींची जा रही हो।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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