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________________ 2401 महाकइ सिंह विरहउ पर्जुण्णचरित [12.13.8 वदिऊउ जो कंचणमालहे घरे जे सिसुत्ते णिज्जिय णिहिलवि अरि। सोलह-लब्भ जेण णिरु पाविय विज्जाहर-पहु सेव कराविय । घत्ता- सो एहु जु सुअणाणंदयरु किर पारेण समउ आवेराइ । अइ पुण्णाहिउ भुवणयले जो महो देहहो पुलउ जागेसह ।। 224।। 10 (14) कहि-कहिं अण्णु होहि णउ तुहं 'सुव सुरकरि-कर परिहग्गल सम भुव । खेडहो किम अवसरु एउ जुज्जइँ परिहउ णिय-जणणिहि केडिज्जइँ । इय णिसणेवि कयंज हत्थई। चविउ तुज्झु सुर हउँ परमत्थ । मेहकूडे पुरवरे णिवसंतर आविउ जइणा समउ तुरंतउ । मायामउ सुरूउ छंडेविणु सहज रूउ तणु चयडु करेविणु। छण-दिण-ससि समाण वर वयण किउ पणामु णिय-जणणिहे मयणइँ । इलहे सउत्तमंगु आरोविवि जणणिए प्रिय सुव रूउ पलोइवि । सिरु चुविवि अवडिउ सुहयरु भणु णिय सुउ कहो होइ ण दिहियरु । पुणु संवरहो घरिणि पपोसिय धण्ण सत्तुब सि सुकील पलोइट। के घर में वृद्धि को प्राप्त हुआ था, जिस पुत्र ने अपने तेज से समस्त शत्रुओं को जीत लिया है, जिसने विधिवत् 16 प्रकार के लाभ प्राप्त किये हैं, तथा विद्याधर प्रभु जिसकी निरन्तर सेवा करते रहते हैं। पत्ता-. और जिसे नारद के साथ आना था, सो सुजनों के नेत्रों को आनन्दित यही वह मेरा पुत्र प्रतीत होता है। भुवनतल में यही वह पुण्यात्मा है, जो मेरी देह को पुलकित कर रहा है। ।। 224 ।। (14) क्षुल्लक अपनी चिर-वियोगिनी माता रूपिणी के दुःख से व्यथित होकर अपना यथार्थ रूप प्रकट कर देता __ है और उसे माँ कहकर साष्टांग प्रणाम करता है ऐरावत की सैंड के समान अथवा परिध (अर्गल) के समान, भुजा वाले हे सुत, तुम (मेरे पुत्र के सिवाय) अन्य नहीं हो सकते। क्या खेट (माया-जाल) के लिए यही एक उपयुक्त अवसर है? तब अपनी माता का परिभव-तिरस्कार दूर करो।" यह सुनकर कमल के समान हाथों वाले उस क्षुल्लक ने कहा—"मैं परमार्थ से आपका ही पुत्र हूँ। मेघकूटपुर में निवास करता हुआ मैं यति नारद के साथ तुरन्त ही आया हूँ।" (यह कहकर उसने अपने ) मायामयी रूप को छोड़कर स्वाभाविक रूपवाला शरीर प्रकट किया और पूर्ण सूर्य एवं चन्द्र के समान उस मदन ने उत्तम वचनों से अपनी माता को प्रणाम किया। पुन: भूमि में (माता के चरणों में) अपने उत्तमांग को टेक दिया। तब माता ने अपने पुत्र का रूप देखा। उसका सिर-चूमकर स्पर्श आलिंगन किया । कहिए कि शुभकारी अपना पुत्र किसको धृतिकर (आनन्ददायक) नहीं होता (सहज स्नेह सिक्त माता के मुख से निकल गया कि) - "मैं धन्य हूँ, जिसने राजा कालसंवर की पत्नी द्वारा पोषित तथा शत्रु को वश में करने वाले अपने पुत्र को उत्तम क्रीड़ा करते हुए देखा।" (14) 1. अम। 2. गोमा। 3. अ. आ
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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