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12.13.7]
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पुणु सच्च मच्छरु उप्पण्णउ जेत्थु सक्खि हलहर - वसुएउ वि पेसिय णिय महल्ल अत्थाणहो
घता
महाकर सिंह विरइउ पज्जुष्णचरिउ
ते जंपहिं पणवे वि पय चाणूररारिणि सुणि सब्भावइँ | णिरु विविच्छ किय सच्चहिमि
जर णिय अलय ण देइ गरेसर काई बिड दिउ कि आलसहि तं णिसुणेवि सीराउह जंपिउ इय एहउ वित्तंतु विलक्खिज जिंव तियसिंदु सयलु संताविउ जिम सच्चएँ आहासिद्ध कण्हहो गिय अंगुब्धउ पेक्खिवि तुट्ठिय
तासु वराय' भणु कोणउ । दस-दसार वहु जायव लोउ वि । विविह णरिंदहिं रइय पमाणहो ।
(12) 3 3 एवज्जहै। 4. अ यंत ।
(13) 1. अ. भिंडिज :
उ माइँ रूविणि तुह गावइँ ।। 223 1
(13)
तो लंजियहँ सत्यु परमेसर 1 पुरु-वय कि अलिउ पयासहि । मरु हउ पत्तुव कोवइँ कंपिउ । केवि भीसम-तणयहि अक्खिर । विविहावत्थु पत्तु जह णाविउ । हलि मच्छरहो चडिउ अइमण्णहो । असम आणंदेण पहिट्ठिय ।
में पुनः मत्सर ( ईर्ष्या भाव) उत्पन्न हो गया। अतः मन में क्रोध से भरकर उसने उस वराक (दीन) नापित को, विरूप की गयी अबलाजनों के साथ वहाँ भेजा, जहाँ साक्षी रूप हलधर एवं वासुदेव बैठे थे। साथ ही दश दशार राजा तथा अनेक यादव लोग उपस्थित थे। ऐसे अनेक राजाओं द्वारा रचित अपने प्रामाणिक महान् आस्थान ( राजसभा) में भेजा ।
घत्ता— उन समस्त अबलाजनों ने कृष्ण के चरणों में प्रणाम कर कहा - "हे चाणूरारि कृष्ण, सद्भाव पूर्वक सुनिए । रूपिणी ने हमें सचमुच ही वीभत्स बना दिया है। वह आपकी आज्ञा नहीं मानती । " ।। 223 ।।
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रूपिणी को प्रतिभासित होता है कि क्षुल्लक के वेश में उसका पुत्र उसके सम्मुख उपस्थित हो गया है
(पुन: सत्यभामा ने उन्हें अपने सन्देश में कहलाया कि ) – "हे नरेश्वर यदि वह रूपिणी अपने केश न देती तो न देती किन्तु हे परमेश्वर इन दासियों ( अबलाजनों) के साथ ऐसा भण्डन ( भद्दापन ) क्यों किया? अब आप ही कहिए – कि क्या मेरे पूर्व वचन झूठे थे?"
उनकी बातों को सुनकर वायु-प्रेरित पत्ते के समान काँपता हुआ सीरायुध ( बलदेव - हलधर ) अपने में कुछ-कुछ बड़बड़ाने लगा। इस प्रकार यह वृत्तान्त देखकर किसी ने भीष्म-पुत्री – रूपिणी को जाकर (चुपके से वह सब कुछ ) कह दिया कि किस प्रकार रूपिणी ने सत्यभामा की समस्त अबलाजनों को सन्ताप दिया था. किस प्रकार नापित विविध दुःस्थिति को प्राप्त हुआ था तथा किस प्रकार सत्यभामा ने श्रीकृष्ण को यह सब सुनाया था और तब हलधर को किस प्रकार मत्सर सहित अतिक्रोध चढ़ गया था।
और इधर रूपिणी निज पुत्र को देखकर सन्तुष्ट हुई वह अत्यधिक आनन्द से हर्षित हो उठी। जो कंचनमाला
(13) (1) कंल्पे ।