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________________ 238] महाका सिंह विरहाउ पजुण्णचरित [12.11.7 10 परियत्तिय सथल ता परिमण अमुणंतउ पवंचु विभिय मणु। जंपइ अण्णोण्णु जि कि सीसइँ भीसम-सुय पयाउ कहो दीस। सुमहुर-वयण सुरूव वि एहिय णिम्मच्छर रूविणि तिय जेहिय । दीसइ भुवणे ण एव चवंतिहिं सच्चहरसु गयहँ विहसंतिहिं । पत्ता- आहासहि सुणि देवि सच्चवणि रूविणि सम । जगे एहउ माहप्पु दीसइ उ एही खम।। 222 1 | (12) लेहि अलय अचिरेण समप्पिय ताव सच्च कोवेण प'कपिय । विगुत्तउ केणवि जुवईयणु केसंगुलिय सवण-घाणि वि भणु। रे णाविय तुज्झु जि कि छ्य"हउ । ता सयलहमि परुप्प"रु जोइउ । णिय सिरु सकरग्गइ परिमट्ठउ4) लज्जाउरु अवलायणु णट्ठ। णाविउ वि णिय तणु पच्छायवि चवइ विलक्खउ णियडउ आय वि । सुणि सामिणि संतोसइँ आयउ एउ वित्तंतु ण अम्हहँ णायउ। को जाने बिना ही आश्चर्यचकित मन होकर सत्यभामा के सभी परिजन (रूपी के भवन से) वापिस लौटने लगे। वे लोग परस्पर में कहने लगे कि भीष्म-सुता (—रूपिणी) के शीश का कैसा प्रताप दिखायी देता है? वह रूपिणी जिस प्रकार सुमधुर-वाणी बोलती है, इस संसार में जैसी सुन्दर है तथा जैसी निर्मल्सरा है, वैसी पृथिवी-मण्डल पर अन्य महिला दिखायी नहीं देती।" इस प्रकार कहकर हँसते हुए वे सत्यभामा के भवन में जा पहुंचे। घत्ता- और उससे बोले...."हे देवि, सत्यवादिनी उस रूपिणी के समान जगत् में अन्य दूसरी कोई समर्थ महिषी दिखाई नहीं देती।" ।। 222।। .. (12) सत्यभामा विरूपाकृति वाले अपने सभी परिजनों को कृष्ण के सम्मुख भेजकर रूपिणी की शिकायत करती है पुन: बोले..."ये केश लो।" यह कहकर उन्हें शीघ्र ही उसे समर्पित कर दिया। तब सत्यभामा क्रोध से काँपती हुई बोली- "कहो कि युवतिजनों को किसने विरूप कर दिया है? उनके केश अँगुलियाँ, कान एवं नाक किसने काटे हैं? और रे नापित, तुझे किसने छेद दिया? यह सुनकर सभी ने परस्पर में एक-दूसरे को देखा तथा सभी ने अपने-अपने सिर को अपनी अँगुलियों से छुआ। (और सभी को अपनी सही दशा का ज्ञान होते ही) लज्जा से दुःखी होकर अबलाजन वहाँ से अदृश्य हो गयीं। नापित भी अपने शरीर को ढाँक कर बिलखता हुआ सत्यभामा के निकट आकर बोला—"हे स्वामिनी, सुनो। हम लोग तो (अपनी विरूप स्थिति को जाने बिना ही) यहाँ सन्तोषपूर्वक आये हैं। यह वृत्तान्त (इस दशा को) हमने रूपिणी-भवन में नहीं जाना था।" सत्यभामा के मन (12) 1.4.412. अ.या। (12) (1) नासिका। (2) लेदिता। (३) परस्पर । (4) परिमत ।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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