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________________ 234] 5 10 कहहि माइ किं दुक्खहो कारण एत्यंतरे सुकेय- सुय सरहस पुव्व पइज्ज सरेवि तुरंतिए सो एंतउ अवलोयइउ सब्दह देवहि अंसु पवाहु पमेल्लिउ णियवि चवइ जइ सुमहुर वयणइँ कहइ चउन्भु पिय सुणि जइबर गुरु पुरउ उ किंपि रहिज्जइ सम्वलाम णामें विह घत्ता महाकद सिंह विरइज पज्जुण्यचरित्र कुंडलु भीसमु धाम पहु रिद्धिय सक्क समाणउ । तो तणिय धीयहउँ सुंदरहो जो जगि उष्णय माणउ ।। 218 ।। (8) (1) परिणीय सच्च वण-भंतरे णव सज्जणाहँ जं हि यय वियारणु । सा चंदाणण जग पसरियस । मोक्कल्लिउ परियण विहसंतिए । अवलायणहमि वियलिय गव्वहँ । भग्गु-छाह 'मुट्ठ मणु डोल्लिउ । के कारण णेण जलोल्लिय नयणइँ । सील सहिय अइ दुद्धर वयधर । णिव्वेइय दुहु सयलु दलिज्जइ । मधु पिस पढम किसोयरि । कण्हु विकीला - वावि तड़ंतरे । बोला - " है माता, तुम्हारे दुःख का क्या कारण है? हृदय में विचार कर सज्जनों को कहना चाहिए। " इसी बीच चन्द्रमा के समान मुख वाली तथा जगत् में यशस्विनी सुकेतुसुता (सत्यभामा ) को उसी समय अपनी पूर्व - प्रतिज्ञा का स्मरण कराया गया और हँसती हुई उसे परिजनों के साथ (रूपिणी के यहाँ ) भेजा गया। उस (सत्यभामा ) अहंकारिणी को अबलाजनों के साथ आती हुई देखकर रूपिणी देवी ने अश्रु-प्रवाह को छोड़ा, उसका उत्साह भंग हो गया, वह किंकर्त्तव्य - विमूढ़ हो गयी। उसका मन डोल उठा । उसकी स्थिति देखकर वह पति ( क्षुल्लक) सुमधुर वचनों से बोला- "क्या कारण है, जिससे नेत्र जल से आर्द्र हो रहे हैं? यह सुनकर चतुर्भुज - प्रिया बोली - "हे सुशील, अतिदुर्धर व्रतधारी, हे यतिवर, सुनो-गुरु के सामने कुछ भी छिपा नहीं रहना चाहिए । निर्वेद ( वैराग्यसहित ) होकर (मन की सभी व्यथ कहकर उस ) दुख को दूर कर देना चाहिए। अतः सुनिए ( सम्मुख आ रही ) यह सुकेतु-सुता —– सत्यभामा नामकी विद्याधरी मेरे पति की प्रथम कृशोदरी पत्नी ( अर्थात् मेरी सौत ) है । " और कुण्डलपुर राज्य करता है। मैं उसी सुन्दर ( भीष्म राजा) की रूपिणी नामकी पुत्री हूँ ।" 1। 218 ।। घला में जगत में श्रेष्ठ, उन्नत प्रतिष्ठित एवं रिद्धि में इन्द्र के समान भीष्म नामका राजा (7) 1. ब पि । 2. ब. 'पं । 3. अ. 'शु | I [ 12.7.3 (8) (रूपिणी अपना परिचय देती है) एक दिन कृष्ण ने रूपिणी को वनदेवी की तरह बैठाकर सत्यभामा को उसके दर्शन करने की प्रेरणा दी -- "कृष्ण ने भी वन के भीतर क्रीड़ा-वामी के तट के समीप नव-परिणीता रूपिणी और सत्यभामा के साथ -- क्रीडा - हेतु गमन किया। जहाँ मुझे वनदेवी के समान स्थापित कर स्वयं वे (कृष्ण) सघन, लता - मण्डप में लुक (8) (1) संभाषण ।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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