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12.7.2]
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महाफइ सिट विरश्उ पज्जुष्णचरिउ
इथ चिंतिवि चिरु जंपइ राणिम सुणि खुल्लय अचिरेण पयासहि कहहि कब कुलु जेथुप्पण्णउँ इस णिसुणेवि जंपर वह धारउ साहु-यथ- सील गुण सहियहँ ताहँगो - कुलु केण ण पुछिउ जे संलग्ग मग्ग जिणसासणे तेहि हुति कुल-गोत्त विवज्जिय
जइ अण्णाणइ पुच्छिउ एउ मइँ खमिव्वउ असेसु णिम्मलमइ
(6)
घत्ता -- जइ किर गोतु विहीणु ता रूसेविणु किं करहि । अइ इ उत्तम वंसु ता तूसेविणु किं करहि ।। 217 ।।
(7)
पुत - विजय सोय विद्याणिय |
जइ महु मणु विसुट्टु आहासहि । जणणि जणु तुं किं तउ कि पाउँ । वयणु ण भासहि अविषय गारउ । गुतित्तय-गुत्तहँ सुह महियहँ । पइँ कह एहु वयणु मणे इंछिउ । मिट्ठुर अठकम्म णिण्णासणे । इय जंपंति देवि किण लज्जिय ।
(6) 1. अ. ब. हि । 2. अ कि" ।
दुक्खाउरई अहव तो तं पहूँ। ता विसेपि सो वि पपई ।
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(6)
रूपिणी ठुल्लक का परिचय पूछती है
इस प्रकार पुत्र-वियोग के शोक से व्याकुल वह रानी रूपिणी चिरकाल तक विचार करती हुई बोली - "हे क्षुल्लक, सुनो। यदि मेरे मन को भी अच्छा कहते हो तो शीघ्र ही प्रकट करो और कहो कि कहाँ से आये हो, कौन सा तुम्हारा कुल है, जहाँ तुम उत्पन्न हुए हो। तुम्हारे माता-पिता कौन हैं और तुमने क्या तप किया है?"
ऐसा सुनकर वह व्रतधारी (क्षुल्लक) बोला - " अविनय एवं अहंकार भरे वचन मत बोलो। जो साधु- व्रत में स्थित हैं, जो शील- गुण सहित हैं, गुप्तित्रय से गुप्त एवं आत्म-सुख से महान् हैं, उनका गोत्र कुल किसी से नहीं पूछा जाता। ( आखिर ) आपने ये वचन अपने मन में चाहे कैसे? जो जिनशासन में लगे हैं, उसी में मग्न हैं तथा अष्टकर्मों के नष्ट करने में कठोर हैं। वे कुल और गोत्र से रहित होते हैं । हे देवि, इस प्रकार पूछती हुई तुम लजाती क्यों नहीं?"
पत्ता- "यदि मैं गोत्र - विहीन हूँ तो रूसकर (मेरा) क्या ( अनर्थ ) करोगी अथवा यदि उत्तम वंश का भी होॐ तो भी तुम सन्तुष्ट होकर क्या करोगी । " ।। 217 ।।
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रूपिणी शुल्लक को अपना परिचय देती हैं
क्षुल्लक का कथन सुनकर वह रूपिणी बोली- “यदि अज्ञानता से दुखातुर हो मैंने आपसे इस प्रकार पूछ भी लिया है तो आप मुझे क्षमाकर दीजिए। आप तो पूर्ण रूप से निर्मल-मति वाले हैं। तब वह भिक्षु क्षुल्लक हँसकर