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________________ 12.4.10] महाका सिंह विरहाउ पज्जुण्णचरिउ [231 धत्ता- इथ धम्म-परिक्ख करंतु थिउ जाम कुमरु णिय-मायहे। भासिय सीमंधर-जिणवरइँ ताम ज भीसम-जायहे ।। 214।। ते सिरिहर समाग संजाया णं देविह वझावर जाया। पूय-सत्थ जंपतु णियच्छइ कुसुमि-फलिउ असोय-तरु पेच्छइ। सुक्क वावि जल-भरिय सुहावण सिहि-कोइलहँ सद्द 'वण रावण । णव-वसंत सिय सरिसु सुरेहइ उबवणु सवणु सविस्भमु सोहह । इय णिएवि जायवकुल-सामिणि चिंतइ सिसु. पहु लाइ गामिणि । महो सुय आगमे जे मुणि अक्खिय चिण्ह सयल मइ-णिय-मणे लक्खिय । संजाया संतोसुप्पायण........... जे महंत बरसोक्खहँ भायण। णियणंदणु पेछिमि पर कत्थई किं खुल्लउ ण होइ परमत्थई। धत्ता- खणे-खणे पुलइज्जइ मज्झु तणु खीरसवंति पयोहर। दहदिम्मुहाइँ णिरु णिम्मलइँ मणे वति मणोहर ।। 215।। 10 घत्ता- इस प्रकार धर्म की परीक्षा करता हुआ जब कुमार अपनी माता के पास बैठा था, तभी भीष्म पुत्री के मन में सीमन्धर जिनवर की बात प्रतिभाणित हुई।। 214 ।। क्षुल्लक के आते ही प्राकृतिक आश्चर्य होने से रूपिणी को अपने पुत्र विषयक मुनिराज की भविष्यवाणी का स्मरण आ जाता है श्रीधर (सीमन्धर) स्वामी ने जो कुछ भविष्यवाणी की थी वह सभी पूर्ण हो रही है। क्षुल्लक का आगमन मानों उस देवी रूपिणी के लिए वर्धापन ही था। पवित्र शास्त्र सम्बन्धी वार्ता करने की वह इच्छा कर ही रही थी कि उसी समय उसने कुसुमित अशोक वृक्ष देखा। सूखी वापी जल से भरकर सुहावनी देखी गयी। मयूर एवं कोयलों के शब्दों के माध्यम से बन को गाते हुए सुना। नव-वसन्त श्री-शोभा के सदृश सुशोभित होने लगा। वन एवं उपवन विभ्रम सहित शोभने लगे। इन (आश्चर्यों) को देखकर यादवकुल की स्वामिनी, गजगामिनी रूपिणी अपने पुत्र के विषय में चिन्तन करने लगी कि "मेरे पुत्र के आने के जो-जो चिह्न मुनिराज ने कहे थे, मैंने अपने मन में वे समस्त चिह्न देख लिये हैं। 'वे चिह्न सन्तोष उत्पन्न करने वाले (सिद्ध) हुए हैं, जो महान् सुस्त्र के भाजन हैं। किन्तु, फिर भी, मैं अपने पुत्र को (यहाँ) कहीं भी नहीं देख रही हूँ। क्या कहीं यह क्षुल्लक ही तो परमार्थ से मेरा पुत्र नहीं है?" घत्ता- "क्षण-क्षण में मेरा शारीर रोमांचित हो जाता है, स्तनों से दूध चूने लगता है, दशों-दिशाओं के मुख अत्यन्त निर्मल एवं मुझे अपने मन में वे मनोरम लग रहे हैं। ।। 215।। {4) I. अ *म। 2. ब र ।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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