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महाका सिंह विरइज पञ्जुण्णचरित
[12.2.10
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घत्ता- दीहर-पह रीणउँ देवि सुणि छुहइ किलामिउ देहु महु ।
बहुदव्व विमीसिय 'पेयवर उण्ह सुअंध सुदेहि लहु।। 213 ।।
जेम होइ वउ मज्झु सइत्तउ । थंभिउ सरेण 'विसज्जा थावई यि लंजियहँ सत्थु आएसिउ सई पेरंति देवि सुवि 'संतुल चवह मयणु पुणु-पुणु सयवारउ देहि भोज्जु किर काइँ चिरावहि इय णिसुणिवि भीसम-सुब कंपिय किण्हहो कारणेण जे रक्खिय एक्कु जि दुज्जरु जो णिरु किण्हहो अइआर सेविण हुंकारइ
एम भणेवि हुववह वि णिहत्तउ। लच्छीहर-दियाइँ गुरु-भाव।। करहु रसोइ तुरिउ इय भासिउ। जलइ-जलणु सिझंति ण तंदुल । जाव ण बच्चइ जीउ महारउ। किं कज्जेण ण वेउ करावहि। मोयय वर अणेय तहो अप्पिय । खुल्लएण ते बहुविह भक्खिय। खंडु वि सो परिणवइ ण अण्णहो । छुहइ ण मज्झु देहु साहारइ।
पत्ता- हे देवि, सुनो। मैं तम्बी यात्रा के कारण अत्यन्त थक गया हूँ। भूख के कारण मेरा शरीर किलमिला
गया है। अत: (सर्वप्रथम) अनेक द्रव्यों से मिश्रित उत्तम, उष्ण एवं सुगन्धित कोई पेय-पदार्थ मुझे शीघ्र ही प्रदान करो-।। 213 ।।
कृष्ण के लिए सुरक्षित दुष्याच्य विविध-मोदकों को क्षुल्लक खा जाता है, फिर भी उसकी भूख शान्त नहीं होती ___ "जो महौषधि के समान चित्त को प्रसन्न करने वाला हो।" इस प्रकार कहकर उसने अपनी तृषाग्नि को प्रकट किया। जब उस कामदेव—क्षुल्लक ने अपना कथन समाप्त किया। लक्ष्मीधर की प्रिया ने गुरुभाव से उसे उस विशिष्ट शैया पर बैठने को कहा तथा अपनी दासियों को तत्काल ही आदेश दिया कि तुरन्त ही रसोई तैयार करो।” इस प्रकार आदेश देकर भी वह देवी रूपिणी स्वयं भी व्याकुल होकर उन्हें प्रेरणा देने लगी। अग्नि तो जलने लगी, किन्तु तन्दुल सीझ ही नहीं रहे थे। इधर वह मदन सौ-सौ बार चिल्ला-चिल्लाकर कहने लगा कि "भूख के कारण प्राण निकले जा रहे हैं, अत: शीघ्र ही भोजन दो, देरी क्यों हो रही है? क्या कारण है कि शीघ्रता पूर्वक काम नहीं हो रहा है?" यह सुनकर भीष्म पुत्री वह रूपिणी काँप उठी। अत: उसने कृष्ण के लिए सुरक्षित अनेक प्रकार के ऐसे मोदक खाने के लिये दिये जिनमें से एक मोदक भी कृष्ग के लिए पचा पाना दुष्कर था। अन्य दूसरे को तो उसका एक कण भी पचा पाना असम्भव था। क्षुल्लक ने उन सभी मोदकों का भी भक्षण कर डाला और पुन: अत्यन्त क्रोधित होकर हुँकारता हुआ बोला—"मैं भूखा हूँ, मुझे स्वादिष्ट आहार क्यों नहीं देती हो?
(2) 1. 'सी। (3) 1. स. सविसबा।
(3} (1) आकुलव्याला