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12.2.91
महाकइ सिंह चिराउ पज्जुण्णचरित
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गुंफहँ गरवइ मत्तायारह
पह-दप्पण्णहँ ढित्ति णिरु धारहँ। कापारा मगलिन वाण लिग पज्जुण्णे णिय भायरि दिठ्यि। घत्ता . अवलोएवि सुट्छु पहिउ चित्तें णवंतु पईसरइ।
जो पुज्जणीउ जसु सोवि तहो अवसु पणामु ण को करइ।। 212 ।।
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सुर-किण्णर-णर णयणा-णंदिरे अग्गासणे अवलाहिमि परिमिय वंभयारि अवलोएवि अहिमुहु इच्छाकारु करिवि गुरु-भाव आउछिउ अण्णेण्णु पयंपिउ महुरालावणु किउ संभासणु उपविउ खुल्लय-वय-धारउ आहासइ णिसुणिहि खामोयरि तुम्हहँ धम्म-पसिद्धि सुणंतउ
हिमहर-हास सरिस जिणमंदिरे। रेहइ णं सासण-देवइ थिय। जिणधम्मपाणंदइ उछिवि लहु । रयणत्तयहो-सुद्धि सब्भाव। तुम्हहँ कुसलु विहिमि इय जंपिउ। रयण विशिम्मिउँ दिण्णु वरासणु। सच्चहे णाइँ अमंगल-गारउ। तित्थसय वंदाविय मायरि। आविउ बहु-विह देस भमंतउ।
राजा को उन्मत्त बना देने वाली थीं। उसके नख दर्पण के समान अत्यन्त निर्मल धारा वाले थे। ऐसी अपनी माता—रूपिणी को उस क्षुल्लक वेशधारी प्रद्युम्न ने कनकमय उत्तम आसन पर बैठी देखा। घत्ता- उस माता (रूपिणी) का भली-भाँति दर्शन कर वह (प्रद्युम्न) अत्यन्त प्रसन्न हुआ। उसने अपने मन
में उसे विनयपूर्वक नमस्कार कर उसके चरणों का (भावाभिभूत होकर) स्मरण किया। यथार्थत: ही जिसका यश शोभा-सम्पन्न (निष्कलंक) है, और जो पूजनीय है, अवश होकर उसे कौन प्रणाम नहीं करता? || 212।।
(2)
व्रतधारी क्षुल्लक रूपिणी से उष्ण पेय-पदार्थ की याचना करता है। देव, किन्नर एवं नरों के नयनों को आनन्दित करने वाले तथा हिमालय-निवासी—महादेव के हास के समान धवल जिनमन्दिर में अग्र आसन पर अबलाओं से घिरी हुई वह रूपिणी इस प्रकार सुशोभित हो रही थी मानों शासन देवी ही स्थित हो। सम्मुख आये हुए क्षुल्लक ब्रह्मचारी को देखकर वह रूपिणी जिनधर्म के अनुराग से शीघ्र ही उठी। गुरुभाव से उसने उन्हें "इच्छाकार” किया, सद्भावनापूर्वक रत्नत्रय की शुद्धि पूछी। परस्पर में वार्तालाप किया और बोली-"तुम्हारी कुशल चाहती हूँ।" पुनः उसने मधुर वचनों से सम्भाषण किया और रत्नों से बना उत्तम आसन दिया। सत्यभामा द्वारा होने वाले अमंगल को दूर करने वाला व्रतधारी वह क्षुल्लक उस पर बैठ गया और बोला- "हे कृशोदरी मात:, सुनो, में सैकड़ों तीर्थों की बन्दना करता हुआ तुम्हारी धर्म की प्रसिद्धि सुनकर अनेक देशों में घूमता हुआ यहाँ आया हूँ।