SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 359
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 226] महाका सिंह विरइज पज्जुण्णरित [11.23.7 भग्गु सुपुटिठ वंसु जिम्मस पए-पए जीवियस्स गुरु संसउ । जहिं रूविणि वि पत्तु तम्मंदिरु सुर-किण्णर-णर णयणरणंदिरु। भेरि-मुअंग करड-कंसालहिं वीणा-वंसालावणि तालहिं । उक्कहु डुक्कह रउ णिसुणिज्जइ कण्णो वडिउ किंपि ण सुणिज्जइ । कालाउस कच्छूरिय परिमलु चंदण-रस रुणुरुंटिउ अलिउलु । पत्ता- सच्चहे मुहु मइलेविण बंभयारि संचरइ कह । णं भंजेवि मरटु सीहु वि दिक्करणीहि जह ।। 211 ।। इय पज्जुण्णकहाए पपड़िय धम्मत्थ-काम-मोक्खाए बुह रल्हण सुब कइसीह विरझ्याए सच्चहामादेवी-माण-भंगो णाम एयादहमी संधी परिसमत्तो।। संधी: 11 ।। छ।। पुफिया 'जेणेदं संसार सहजं णिच्छिदं जाणिऊणं, रज्जेणं सहसयणविंद सिंह अवमाणिऊणं । गहिऊणं णि गंथचरियं साधिदं सिद्धि-ठाणं । तं देवं देवेंद णमिदं देउ कइ-सीह णपणं ।। 1।। जीवित रहने में संशय हो जाता था। ___ जहाँ रुक्मिणी रहती थी, उसी सुर, किन्नर एवं मनुष्यों के लिये नयनाभिराम भवन में वह क्षुल्लक जा पहुँचा । भेरी, मृदंग, करट, कंसाल, वीणा, बाँसुरी, आलापनी, ताल, ढक्का, डुक्का, आदि वादित्रों के शब्द किये जा रहे थे। उनके कानों में पड़ने के कारण और कुछ भी सुनाई नहीं देता था। कालागर, कचूर आदि सुगन्धित चन्दन रस से भ्रमरगण रुण-झुण ध्वनि कर रहे थे। घत्ता- सत्यभामा के मुख को मलिन कर ब्रह्मचारी क्षुल्लक ने संचरण किया। कैसे? वैसे ही जैसे दिग्गजों की भीड़ को भगाकर सिंह संचार करता है।। 211 ।। ___इस प्रकार रल्हण-सुत कवि सिंह द्वारा विरचित धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष को प्रकट करने वाली प्रद्युम्न-कथा में सत्यभामा-महादेवी के मानभंग नामकी ग्यारहवीं सन्धि समाप्त हुई।। सन्धि: ।।।। छ।। पुष्पिका— कवि सिंह द्वारा आराध्य-स्मरण __ जिसने सिंह वृत्ति वाले इस संसार को भी सहज रूप में ही अन्तिम जानकर तथा जिसने अपने साथी स्वजन रूपी सिंहों का भी अपमान कर निर्ग्रन्थ चरित्र ग्रहण कर लिया और उसका साधन कर सिद्धि-मुक्ति स्थान का अभ्यास किया, उस सिंह कवि को देवेन्द्रों से नमित वह सिंहदेव.—महावीर ज्ञान-दान प्रदान करें। 1 1 ।। (23) 3-4. अ 'पुटिङ सु' नहीं है। 5. अ अदीपउ । पुष्पिका. I. शिव। 2. अमिगंध।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy