________________
11.23.6]
यताका सिंह विरइउ पञ्षुण्णचरित
[225
दालिद्दिणि कि किविणि भणिज्जइँ। भाणु कुमारु तणउँ हरिवल्लहु पियरु वि विज्जाहरु जगे दुल्लहु । 10
सामिणि अवलायणहो असेसहो तुज्झु लोहु सुण सयलहु एसहो। 'सुहए ण दिण्णु भोज्जु दिहि गारउ धिद्धिगच्छु एउ चित्तु तुहारउ।
हउँ ण तित्तु किं एणाहारईं पडउ वज्जु खले सीसे तुहार। पत्ता- परिवारिउ णिय अण्णु पावि पडिच्छहिं तुरिउ तुहुँ। इय जपेविणु तेण कियउ दमणु वडुएण लहु ।। 210।।
(23) गाहा– पिच्छेविणु वित्ततं माणुस मज्झे वि पंगणं तहय ।
णियचित्ते सुवि तसिया देवी दियविंद सयल लोयादि । । छ।। लच्छीहर पियाहे अंगुल्भउ
एम जणस्स करंतु वियंभउ । 'गउ कि 'सुरणिय सारि गेहलो दुल्लय-रूउ करिवि णिय देहहो। खीण-सरीरु दुगंधु विरूवउ वीहत्थु वि किंकालु सरूवउ । वंकंगुलियउ दंतुर वयणउँ
कर-चरणोह दीह किस-णयणउँ। कहा जाय या कंजूसिनी? जगत् में दुर्लभ तेरा भानुकुमार जैसा पुत्र, हरिवल्लभ जैसा पति और विद्याधर जैसा पिता है, तू समस्त अबलाजनों की स्वामिनी कही जाती है, फिर भी तेरा यह समस्त लोभ देखा-सुना। तूने भूखे को भोजन नहीं दिया, उसके धैर्य और गौरव को महत्व नहीं दिया। तुम्हारे ऐसे क्षुद्र चित्त को धिक्कार हो, धिक्कार हो। जब में तृप्त ही नहीं हुआ, तब तुम्हारे इस आहार कराने से क्या लाभ? – हे दुष्टे, तेरे इस शीर्ष पर वज्र पड़ जाय तो उत्तम । घत्ता- "हे पापिनी, अन्य अपने परिवार के जनों के साथ उसके फल-भोग की तुरन्त प्रतीक्षा कर।" ऐसा कहकर उस बटुक ने शीघ्र ही वहीं पर दमन कर दिया ।। 210।।
(23) मायावी घटुक क्षीण एवं विकृत-काय क्षुल्लक वेष बनाकर रुक्मिणी के निवास-स्थल पर पहुँचता है। गाथा- मनुष्यों के मध्य में तथा प्रांगण में उस प्रकार की घटना को देखकर सत्यभामा देवी अपने चित्त में
बड़ी दुखी हुई। साथ ही द्विजवृन्द तथा समस्त लोक त्रस्त हो उठे।। छ।। लक्ष्मीधर (कृष्ण) की प्रिया के अंग से उत्पन्न वह मदन (मायावी वटुक) इस प्रकार जनों के मन में विस्मय करता हुआ अपने शरीर का क्षुल्लक रूप बनाकर अपनी माता के घर के सम्मुख गया। उसका शरीर क्षीण-दुर्बल, दुर्गन्धित, विरूप, वीभत्स (भयावना), कंकाल स्वरूप टेढ़ी अँगुलियों वाला, उखड़े हुए दाँतों बाला, लम्बे-लम्बे हाथ-पैर वाला, छोटी-छोटी आँखों वाला, टूटी हुई माँस रहित पीठ वाला था। पद-पद पर उसके
उ।
(22) 2. 4 दे। 3. ब. 'छु। ५. र (23) 1. अ. 'म। 2. अ. "मु।