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महाकड़ सिंह विरल पजुष्णचरित
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णियहि लोणिय चित्ते चक्किय्य हें अवसरे आहरणालंकिय। धावेविणु वि देवि पुणरवि तहिं गय अवलोयणम्मि वडुवउ जहिं । मंडव-मोयय-दहि-खीरेहिमि सक्कर-गुल'-खज्जय खंडेहिमि । संवच्छरेण जंजि उयरिया
तम्णिविरांतरेण संहरियउ। घता- तो वि ण दिहि उप्पण्ण आणि- आणि इय भासइ। णं भुक्खिया गयंदु तह भक्खंतु वि दीसइ।। 209 ।।
(22) गाहा- हयगय-करहाणत्थं खाणे पउरं पि णिम्मियं जंपि।
दिण्णं तं तहो 'तुरियं सच्चाएसेण सपल भिच्चेहिं ।। छ।। जह-जह सयलु अण्णु होइज्जन तह-तह तहो कवतु वि णज पुज्जाइ । विभिउ-जगु अवलोइबि तहो मुहु जंपइ कहिं होसइ एमहो सुहु । णियमंदिरहो गपि ण पहुच्चइ । उहँतउ जीविरण पमुच्चइ। कोऊहल-रसैण रंजिय-मणु पीण-पउहरीहिं णाविय तणु। अवलोइय सयलु वि अंतेउरु
तहिं अवसरे आहासइ दियवरु।
आभरणों से अलंकृत देवी (सत्यभामा रसोई घर से) दौड़कर पुन: वहाँ आयी जहाँ से इटुक दिखायी दे रहा था। उसने माँड, मोच (इमली का पानी), दही, खीर, शर्करा से युक्त खाना, श्रीखण्ड आदि जितनी खाद्य-सामग्री थी वह सब परोस दी। इस प्रकार एक वर्ष में जो आहार-सामग्री जोड़ी थी और जो एक वर्ष में खायी जा सकती थी, वह सब निमिष मात्र में ही खा गया। घत्ता- तो भी उस (वटुक) को धैर्य-तृप्ति नहीं हुई। “लाओ-लाओ" इस प्रकार चिल्ला रहा था। (उस समय) वह ऐसा दिखायी दे रहा था, मानों भूखा हाथी ही खा रहा हो।। 209 ।।
(22) भोज्य पदार्थों से तृप्त न होकर कपिलांग-द्विज सत्यभामा की भर्त्सना कर वहीं पर वमन कर देता है गाथा.. घोड़ा हाथी एवं ऊँटों के खाने के लिये जो प्रचुर सामग्री का निर्माण किया गया था, वह सब सत्यभामा
के आदेश से सभी भृत्यों ने उस वटुक के लिए तुरन्त ही परोस दिया ।। छ । 1 जैसे-जैसे सेवक समस्त अन्नों को होकर लाते थे, वैसे-वैसे वे उसे एक ग्रास के लिए भी नहीं पूजते थे। उसका मुख देखकर समस्त लोक आश्चर्य करने लो और कहने लगे, “इसको कैसे सुख होगा (तृप्ति होगी)? यह द्विजवर जाकर भी अपने घर तक न पहुँच पायगा उठते ही कहीं इसके प्राण न छूट जाय?" ___ कौतूहल रस से रंजित मन वाले उस दिन का शरीर पीनस्तनी दासियों द्वारा उठाया गया। समस्त अन्त:पुर को देखकर वह द्विजवर अवसर पाकर बोला- "(हे देवि), तुझे कौन सा दोष देना उचित होगा। तुझे दरिद्रनी
121) I. अगा। (22) 1.4. 'दु।