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________________ 222] भावाइ सिंह विर पज्जुण्णचरित 111.19.6 जो तुम्हहमि मझे वहु जाणउ । सो वोल्लउ कि मइमि समाणउ। जाइ सरीरु जीउ गउ गम्मु वि वंभणु' त्ति लक्खणु णउ वण्णु वि । वेयहो-आगम को सद्धारउ जासु सोज्जि तइलोइहो सारउ। अय-हय-गय-ण 'गाइँ-गो-सत्थ इँ पहणिय जणे जेत्थु परमत्थ। संति भणेवि असंति रहज्जइ । जणणि-वहिणि-सुय जेच्छु रमिज्जइ । वारुणि-महु-मंगलु भक्विज्जइ जगहो विरुद्ध जं जि तं किज्जह । पत्ता-. इय अणुमग्गइ संवरहिं देय-पमाणु केम पसणिज्जइ।। जे पंचेंदिय रस- रसिय ते णिरु विष्प ण अज्जु भणिज्जइ ।। 207।। (20) गाहा... इय वयणेण सु जंपिएण सयलाण दियवरिंदाणं । कोवाशलेण पज्जलिय माणसं तक्खणेण सव्वाणं ।। छ।। कोलाहलु करत उद्धाइम रोसारुण णउ कत्थ: माइय | पंचेनि विना शा . अप्प-शस्त मरस किय कामें। सयल वि णिय-णिय मणे अमुशंता एक्कमेक अभिडिय तुरंता। तो नष्ट हो जाता है, गुण नष्ट नहीं होता। वस्तुत: गुण ही ब्राह्मण अथवा मुनि का लक्षण है न कि वर्ण। कोई वेदों की आगम रूप में श्रद्धा करता है और उसे ही वह तीनों लोकों में सारभूत मानता है। अज, हय, गज, नग, गो, शास्त्र और अन्य प्रचलित शास्त्रों में ही जिसकी परमार्थ मति रहती है। सत् कह कर जो असत् में रम जाता है, जो माता, बहिन एवं पुत्री से रमण करता रहता है, जहाँ मदिरा, मधु, माँस खाया जाता है और जो-जो (मान्यताएँ) जगत व्यवहार के विरुद्ध है, वही-वही किया जाता है। घत्ता- इस प्रकार जिनके द्वारा प्रतिक्षण ऐसा (दूषित) आचरण किया जाता है, उनके द्वारा वेदों का प्रमाण कैसे प्रकट किया जा सकता है? जो पंचेन्द्रियों के रस में रसिक हैं, वे यथार्थ विप्र नहीं है।। 207।। (20) कपिलांग वटुक-द्विज के कथन से अन्य सभी ब्राह्मण आपस में कलह करने लगे, सत्यभामा कपिलांग की प्रशंसा करती है गाथा-- इस प्रकार कपिलांग बटुक द्वारा कहे हुए वचनों से सभी द्विज-वरेन्द्रों का मानसं तत्क्षण ही कोपानल से प्रज्ज्वलित हो उठा।। छ।।। कोलाहल करते हुए वे दौड़े। रोष से लाल-लाल होकर वे अपने में ही नहीं समाये। अपनी विद्या का स्तम्भन रूप प्रपंच करके उस (कपिलांग बटुक रूपी) कामदेव ने अपना स्वरूप यथावत् सरस बना लिया। इधर, सभी द्विजवर अपने-अपने मन में विवेक से काम न लेकर एक-दूसरे से तुरन्त आ भिड़े। एक-दूसरे के कोश-कलाप (19) 1. म. वंभनि। 2. अ. भल्लार।। 3-4. अ राइमास थे। 5 |
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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