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महाका सिंह विरइज पशुपणनरिउ
[11.17.5
पहिलारउ तुझु जि णउ अणहो पुणु परियणहो देमि वहु घणहो । दियवरु चवइ देवि आयण्णाह ए सयल वि कुसील अवगणहि । अहम-अयाण-अपत्त-अलक्षण पासंडिय डिभिय पल-भक्षण । संझा-चरण वेय-गुण-वज्जिय अप्पउ विप्प भणंति ण लज्जिय । हउमि पुराण-सत्थ बहु जाणउँ वेय-सहिउ अइउण्णय माणउँ । णिल्लोहु वि णि-कोहु-दयवंतउ | विज्जायतु गुणेहिं महंतउ।
जगे पवित्तु कि 'थयरइ किज्जइ सयलहँ अग्गा सासणु महो दिज्जइ । घत्ता- मई एक्कइँ जिमिएण जिमिय होति सयल वि कि अणहैं।। णिहिलद्धवि पतस्स दिज्जइ 'णच्च वि सउ णय मणहँ ।। 205 1 ।
(18) गाहा. - अवहारिऊण विप्पस्स सामियं दिण्ण सलिल आएस ।
चरणाण धोवणत्थ सहसत्ति समुट्ठिया देवी।। छ।। सयलहं दियवरहि पहिलारउ उठ्ठिउ वडुर सदुट्ठ णिवराउ। णियय चलण लहु धोआएवि गउ पुणु पढमासम्म वइसिवि थिउ ।
अवलोएवि विलक्स 'बइट्ठाहर बसेवि परोप्यरु जंपहि दियवर। द्विजवर बोला—"देवि सुनो, इन सभी को कुशील समझो। ये अधम हैं, अज्ञानी, अपात्र हैं, लक्षणहीन हैं, पाणंडी हैं, कपटी हैं। माँस-भक्षी हैं। सन्ध्याचरण, तर्पण आदि वेद के गुणों से रहित हैं, फिर भी अपने को विप्न कहते नहीं लजाते और मैं, पुराण-शास्त्र बहुत जानता हूँ, वैदिक संहिताओं के ज्ञान में अति उन्नत माना जाता हूँ। तीन लोकों में भी मुझ जैसा कोध रहित एवं दयावान और विद्यावन्त गुणों से महान् अन्य कोई नहीं है। मैं (ही) जगत् में पवित्र हूँ, अन्यों में क्यों रति की जाय?. गयल (प्रमाद) को हते (नष्ट) कर अपना भोजन मुझे दीजिए। धत्ता- मुझ एक को जिमाने मात्र से ही अन्य सब जिमायें जैसे हो जाते हैं, तब अन्यों (को जिमाने) से क्या लाभ? निधि प्राप्त करके स्वयं अपने मन में समझ-बूझकर सुपात्रों को दीजिए (भोजन-दान दीजिए)।। 205 ||
(18) कपिलांग बटुक-द्विज के उच्चासन पर बैठ जाने से अन्य ब्राह्मण क्रुद्ध हो उठते हैं गाथा- विप्र का कथन सुनकर उस देवी सत्यभामा ने अपने भृत्यों को जल लाने का आदेश दिया और उसके
चरणों का स्वयं प्रक्षालन करने हेतु उठी।। छ।। समस्त द्विजवरों में प्रथम एवं दुर्निवार तथा मधुर वाणी में स्वागत-प्राप्त वह वटुक द्विज शीघ्र ही सत्यभामा से अपने पैर धुलवा कर गया और प्रथम आसन पर बैठकर स्थित हो गया। इसको देखकर अन्य सब द्विजवर बिलख कर नीचे बैठ गये और परस्पर में बोलने लगे-"अपने गोत्र, जाति, कुल एवं शाखा को समझे बिना ही
: 7-8. अ गउ विसउन्न्त ।
(17) 4. अज। 5. अ. अवरें। 6. अ. (18) I. अ. 'द।