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________________ 11.17.4] महाकद सिंह गिरकर पज्जुण्णारत [219 अवरेत्तहिमि पालि गाउ लावमि तुव हत्थेण अन्जु धणि पामि। इय अइदीणु क्यणु णिसुणिवि णिरु जणु गरहंतु चवइ विहुणिवि सिरु । रे दियवर सुहकम्म-विवज्जिड़ भोयणु मग्गंतउ किंण लज्जिउ। जं समदिठिन देवि पिहालइ तहो दालिहु सयलु पक्खालह। पइँ समाणु सुपसणइँ वोल्लिउ परि किं णिय हय दइ अई पेल्तिउ। तुहाम-रह कंचन-प्रयाग मग्गहि गाम-णयर वरसयणइँ । कण्णा-दाणइँ गोहण-भवण. पुण्ण समाइँ होति णिरु वयणइँ। पत्ता-. पच्चत्तरु वडुअ समुल्लवइ हय-गय लेवि ण अम्हह जुज्जई। __णिय तणयहो मंगल कज्जे फुडु देहि भोज्ज किं अवर किज्जइँ।। 204 ।। (17) गाहा– सुणिऊण विप्प वयणं सहसा साणंद किण्ह महएवी । 'महाणसम्मिमग्गम्मि गया जच्छ थिया विबिह-भक्खा' ।। छ।। अइ विणएण सरिस आहासइ तुब समाणु दिउ कोवि ण दीसइ । सरसु सुमहुरु सुअंधु सुमिहउ भुंजहि भोयणु जं तुह इट्ठउ । तुम्हारे हाथ से भोजन पाऊँगा।" इस प्रकार के अतिदीन वचन सुनकर लोकों की निन्दा करती हुई अपने सिर को घुनकर बोली-“रे शुभकर्म से विवर्जित द्विजवर (केवल) भोजन (मात्र) माँगते हुए क्या तुझे लज्जा नहीं लगती?" (यह सुनकर उसने उत्तर दिया) - हे देवि, जो समदृष्टि से देखता है, उसका समस्त दारिद्रय पखर (धुल) जाता है। आपके समान सुप्रसन्न (वचन) कोई नहीं बोलता, पर क्या कहूँ, मैं भाग्य का मारा हुआ ही यहाँ आया हूँ।" (तब देवी ने कहा) "तुम हाथी, घोड़ा, रथ, रत्न, कंचन, ग्राम, नगर एवं उत्तम शैया आदि माँगो। कन्यादान माँगो, गोधन माँगो, भवन माँगो। आपके मुख से वचन निकलते ही वे पूरे किये जायेंगे।" घत्ता- तब वटुक ने प्रत्युत्तर में कहा-"हय, गज लेना हमें युक्त नहीं। आप अपने पुत्र के मंगलकार्य में हमें केवल भोजन दे दीजिए। अन्य कार्यों से हमें क्या प्रयोजन?" ।। 204।। सत्यभामा एवं कपिलांग वटुक का वार्तालाप, कपिलांग प्रशंसा करता है गाथा- सहसा ही विप्र के वचन सुनकर आनन्द से भरी हुई कृष्ण की महादेवी (सत्यभामा उस) महानस (भोजनशाला) में गयी, जहाँ विविध भक्ष्य रखे थे। ।। छ।। (पुन: वह सत्यभामा उस कपिलांग वटुक द्विज से) अतिविनय पूर्वक सरस शब्दों में बोली, "तुम्हारे समान अन्य कोई द्विज नहीं दीखता। (अब इन पकवानों में से) तुम्हें जो इष्ट हो वही सरस, सुमधुर, सुगन्धित एवं सुमिष्ट भोजन करो। पहले मैं तुम्हें जिमाऊँगी और बाद में अपने अन्य घनिष्ठ परिजनों को। (यह सुनकर वह) (161 (5) लोक। 16) ब हातकम्मेणकपेलित. । (16) 3. ब. अ. च। (17) 12. अ. भग सम्भ । 3. अ अ है।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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