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माकद सिंह विरइउ पज्जुण्णचरिउ
तो महो दोसु णत्थियइ बोल्लिउ भो गरिद निय-पुरउ नियच्छहि धाइउ' माया - मेसु तुरंतउ णिट्ठुर-घाय ैइं णरवइ घाइउ णिवडइ किर महियले पहु मुच्छिउ
गाहा.
पत्ता - अवलोएवि एम पियामहु मुच्छ परव्वस अण्ण मणु ।
गयरयंतुळे अविह्रत्यहो मेल्लिउ । सिर-पहारु पिय सत्तिए इच्छहि । अत्यागो मणे खोहु करंतर । सव्वंगहमि कंपु उप्माइउ । जाम - ताम णरवइर्हि पडिच्छिउ ।
साणंदु सु तेत्यहो णी सरिउ गउ अणेत्तर्हि रइ - रमणु ।। 203 11
(16) गहिऊण वटुव वेसं कक्लिंगं तहय दीहरच्छिल्लं । गहिर-गिरएं पढंतो सच्चहरं वच्चए तुरियं । । छ । ।
दिउ जंप जायवकुल - सामिणि णिसुणि देवि दिग्गय-गय- गार्मिणि । यि सेयंस(2) - विडवि फल भाइणि (3) उहप-वंस सुविसुद्ध महाईणि । सत्य- महोवहि पारे पराइउ भोयणत्थे हउं तुव घरे आइउ 2 (4)
[11.15.8
पड़ें, तो मुझे कोई दोष मत दीजिएगा।" इस प्रकार कहकर उसने तुरन्त ही अपने हाथ से उस मेष को छोड़ दिया। पुनः उस (मेणपाल ) ने कहा- "हे राजन्, आप सामने देखिए और उसके सिर के प्रहार से अपनी शक्ति का विचार कीजिए।” वह माया - मेत्र तुरन्त दौड़ा। उसने आस्थान में बैठे राजा ( वसुदेव) के मन में बड़ा क्षोभ उत्पन्न कर दिया । निष्ठुर घात से उस (मेष) ने नरपति को घायल कर दिया और उसके सर्वांग कम्पन उत्पन्न कर दिया। जब वह (बसुदेव ) भूमि पर गिर पड़ा और मूर्च्छित हो गया तब राजाओं ने उसकी मूर्च्छा दूर की 1
धत्ता—
इस प्रकार पितामह को मूर्च्छित, परवश एवं विवर्ण मुख देखकर वह रतिरस प्रद्युम्न आनन्दित होकर वहाँ से अन्यत्र चल दिया ।। 203 ।।
(15) 2. अ 'रपरंतु । 3 अ आज 4 पाएँ। 5. ब. "ह" । (16) 1-2 अ इत्थ भाइ ।
(16)
गाथा
वह प्रद्युम्न कपिलांग वटुक - द्विज के वेश में सत्यभामा के यहाँ पहुँच कर उससे भोजन माँगता है दीर्घ नेत्र वाला वह प्रद्युम्न कपिलांग बटुक द्विज का वेश धारण कर गम्भीर वाणी से ( कुछ-कुछ) पढ़ता हुआ तुरन्त ही सत्यभामा के घर पहुँचा । । छ । ।
वह बटुक द्विज बोला — " यादव कुल की स्वामिनी, दिग्गज गजगामिनी, अपने श्रेयांस (पुण्य) रूपी वृक्ष के फलों को भोगने वाली, उभय वंश की सुविशुद्ध महास्वामिनी, है देवि, सुनिए, शास्त्ररूपी महासमुद्र में पारंगत मैं आपके यहाँ भोजन के लिए आया हूँ। अन्यत्र में पाली नहीं लगाता (क्रम को नहीं बाँधता ) किन्तु आज मैं धन्य हूँ, जो
(16) (1) व दीर्घनेत्रं (2) अ पुग्वकस्म । (3) व शुभंकरी । (4) अ.
आन्त ।