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11.15.7]
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महाकइ सिंह विरइज़ पज्जुण्णचरिउ
हर
करेवणु गति णिवद्धु दिदु डोरु धरेविणु । थि होएवि पुणुरवि संचालइ । अस्थात्थ पहुणा जोइउ ।
मरद्धएण चिंते "मेस एक्कु तहिं तेण करेष्पिणु'
तसिय चित्तु दह - दिहहिं हिलइ सीह-दुवारहो सम्मुहुँ सो इउ
छत्ता- "वोलाविउ चित्ते पहिए को तुहुं किं किउ आगमणु । कुण तणउँ मेसु अइ-दुद्धरिसु किं बहुणा णिय कज्जु भणु ।। 202 ।। (15)
गाथा
गाहा --- एयंचिय अयवालो जंपइ भो देव अयहिं बहु एहिं ।
ण कलिज्जइ ए सवलं तं आयउ तुम्ह गेहम्मि । । छ । ।
तु मेसहँ परिक्ख णिरु जागर्हि
ता जंपर पहु किंपि म बोल्लि
महो जण्डुहि समाणु ण पहुच्चइ ता तिणि सगल सक्खि कय राणा 'इव-वसेण जहु अकोमले
लइ एयहो परिसु परियार्णाहिं । रे अयवाल तुरिउ अवि मेल्लाहि । अइ पडु भुवि पाणहि मुज्जइ । अत्थाण छेक्क्क पहाणा ३ गस्त्रज्झडेण वि णिवडइ महियले ।
ने ( पुनः विद्या का ) चिन्तवन किया और दुर्धर विद्या के प्रभाव से एक ( मायामय) भेा बना लिया। फिर गले में बँधी हुई उस मेष की डोरी को दृढ़तापूर्वक पकड़ा और चित्त में डरते हुए दशों दिशाओं में देखने लगा। स्थिर होकर पुन: मेष को चलाने लगा। इस प्रकार वह सिंहद्वार के सम्मुख जा पहुँचा तभी आस्थान ( राज दरबार ) में स्थित प्रभु ( वहीं से) उसे देखा ।
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पत्ता -... वसुदेव ने चित्त में हर्षित होकर उस मेष वाले को बुलवाया और पूछा- "तुम कौन हो ? आने का क्या कारण है? अति दुध यह मेष कहाँ का है? बहुत कहने से क्या? अपने (आने का ) प्रयोजन कहो। " ।। 202 ।।
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मायावी मेष से वसुदेव को मूर्च्छित करा कर प्रद्युम्न आगे बढ़ जाता है
वसुदेव के पूछने पर मेणपाल बोला- "हे देव, मेन तो बहुत हैं, किन्तु इसकी सबलता के आगे दूसरे कुछ भी नहीं हैं। अतः इसे लेकर आपके घर आया हूँ ।। छ । ।
"तुम मेष की परीक्षा ठीक जानते हो अतः इसे लो और इसके पौरुष को जानो।" तब प्रभु ने कहा - "बोल कुछ भी भत, रे अजपाल, शीघ्र ही इसे छोड़ । प्रभुत्व (सामर्थ्य) में मेरी जंघा के समान यहाँ किसी की जंघा में सामर्थ्य नहीं है । वह अति प्रचण्ड है और लोक में (दूसरों को) प्राणों से छुड़ा देती है। पुनः उस प्रधान राणा (वसुदेव) ने तीन साक्षी ( नियुक्त ) किये और उन्हें एक-एक आस्थान में नियुक्त कर दिया। (उस अश्वपाल ने वसुदेव से कहा- "दैव वश आपकी जंघा अति कोमल है अतः महान् आघात से (यदि आप ) महीतल में गिर
(14) 4-5 अ. * 161-7. अ. :- संचे। 10 अ आ (15) L.