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________________ 216] महाकद सिंह बिराउ पज्जण्णचरिड [11.13.9 पुण्णाय-गाय-देइल्ल-दिव्य मचकुंद-कुंद जे-जे भुवणे भव । एय वि अवरेइ वि तक्खणेण अक्कमय विणिम्मिय तुरिउ तेषा । पल्लद, पडीवल अावा बर विविह धण्ण-धण-दावण्हें । पत्ता- गंधहँ गंधत्तणु अवहरइ करइ तुप्पु सम तेल्लहो। दीणार 'सुलोहइँ सम' सरिसु अइ-पवंचु जग मल्लहो।। 201।। गाहा.... जं किंपि भव्व वत्थ विदरीयं तं कुणेइ तं संयलं। 'भमइ व कीलाए विप्पो णयरस्स मज्मम्मि ।। छ।। णियह ताम वसुएवहो राउलु जहिं वरविविह सुगीय व माउलु । करि-करडयल गलिय मय-धारहि किउ कद्दमु हप-मुह-जलफारहि । वारि रसई" जयवडहु सुसारउ आहासइ उच्छुडणु धारउ। कहहि विज्जि एउ कस्स सुहावणु रायदुवारु सुद्छु मण-रावणु। कहहि तासु सा पहु आयपणहिं णियय पियामह केरउ मण्णहिं। मेस-जुज्झु एक्कु जि परिभावइ एयहो लीह भुवणे को पावइ। वेला, मचकुन्द कुन्द आदि लोक में जो-जो भी भव्य पुष्प थे उन सभी को तथा अन्य दूसरे पुष्पों को भी तत्क्षण ही उसने एक साथ सुगन्धरहित कर दिया। बाजार की विविध श्रेष्ठ धन-धान्य वस्तुओं के रूप को पलट दिया। यत्ता- उसने सुगन्धित पदार्थों की सुगन्ध हर ली। धी को तेल के समान कर दिया (स्वर्ण-) दीनारों को लोहे के समान कर दिया। इस प्रकार जगह में मल्ल उस (प्रद्युम्न) का अत्यधिक प्रपंच वहाँ होने लगा।। 201 ।। (14) मायामय मेष लिए प्रद्युम्न को देखकर वसुदेव उसे राजभवन में बुलवाते हैं गाथा- जो कोई भी भव्य वस्तु थी, उस सबको वह विपरीत कर देता था, और इसी प्रकार वह विप्र नगर के मध्य क्रीड़ा पूर्वक भ्रमण कर रहा था।। छ।। तभी उसने वसुदेव का राजकुल देखा जो विविध सरस सुगीतों से भरपूर था। (नगर में) कहीं तो हाथियों के गण्डस्थल से गलित मद जल की धारा से और कहीं पर घोड़ों के मुख की जल की विशाल धारा (फेन) से कीचड़ मची हुई थी। सामर्थ्य की द्योतक (फहराती हुई) विजय-पताकाएँ जल-प्रवाह की तरह शब्द कर रही थीं। इक्षु-दण्ड-धारी उस विप्र ने अपनी प्रज्ञप्ति-विद्या से पूछा कि "हे विद्ये, कहो, कि यह सुहावना, सुन्दर एवं मन को रमाने वाला राजद्वार किसका है?" तब वह विद्या बोली—“हे प्रभो, सुनो, यह राजद्वार अपने पितामह का मानो। उन्हें केवल मेष युद्ध ही अच्छा लगता है। इनकी बराबरी जगत में कौन कर सकता है? तब मकरध्वज (13) 2-5. अ. उवल। (14)1-2.अ. भमई वड्य। 1.अ. 'ध"। (14) (1)4 शब्दं करोति।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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