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________________ 11.13.81 महाका सित बिराज पज्झुण्णचरित 1215 पिएविणु एम सु तेत्वहो चलिउ सुबुद्धिएँ नेण जगत्तउ कलिउ । पढंतु महागम-वेग-पुराण गउ-दिउ मालियअस्स घराण। जराइम कंपइ णिवडइ जहि करेणुच्चाइय पामिवि पिछि। पुण्णोउरु दुक्खहँ उन्भउ थाइ खलंतु पहम्मि ससंतु वि जाइ। 15 घत्ता-... मंदार-कुंद-कुजलग साल-मालइ रहार पडू अवलोइवि अलिउलु चउदिसहिं धावतउ विहडेप्फडु ।। 2001 । (13) गाहा -- आहासेइ सो इमं मालायारेण संजुवो विप्यो । विजाहरस्स तणया पच्छामो भोयणत्थेण।। छ।। इय कम्जई एत्थ समागमणु किउ मइँ णिसुणहि अवरु वि वयणु । दे देहि सुअंध-कुसुम-विविहा णिरु सरसु भोज्जु हउँ लहमि जहा। ता जंपइ मालिउ विप्पक्खणि अग्गइँ परिसक्कि म किंपि भणि। सच्चहि सुवासु परिणयण-विहीं हरि-हलहराहँ संजणिय दिही। आरक्खिय इय कज्जेण जइ मग्गहि दल-'पत्तु ण लहहि तइ। ता हुवउ विलक्खउ अडइ सुउ कोवाउरु मणे कंपंतु घिउ। वहाँ से चल दिया। महान् आगम, वेद, पुराण पढ़ता हुआ वह द्विज मालियों के घर गया। बुढ़ाई देह काँपती थी। लकड़ी गिर पड़ती थी। उस लकड़ी को हाथ से उठाता था । झुकी हुई कमर से बड़ी कठिनाई पूर्वक खड़ा होता तथा बैठता था। मार्ग में स्खलित हुआ, श्वास लेता हुआ जाता था। घत्ता- चारों दिशाओं से मन्दार, कुन्द, कुवलय (कमल), वकुल, मालती पुरुषों की मालाओं पर गिरते पड़ते भ्रमर-कुल को देखकर रतिरस लम्पट वह (द्विज—प्रद्युम्न) वहीं रम गया ।। 200।। (13) मालियों द्वारा पुम न दिये जाने पर वह पुष्पों की सुगन्धि का अपहरण कर बाजार की सभी व्यापारिक ___सामग्रियों के रूप को बदल देता है गाथा-. मालाकार के समीप जाकर वह विप्र (प्रद्युम्न) उससे बोला—“विद्याधर पुत्री—सत्यभामा से मैं भोजन के लिए प्रार्थना करूँगा।" ।। छ।। ___ "इसी कारण मैंने यहाँ समागमन किया है, और भी मेरा वचन सुनो। मुझे विविध सुगन्धि दे दो. जिससे मैं अत्यन्त सरस-भोजन प्राप्त कर सकूँ।" तत्क्षण ही माली ने उत्तर दिया- आगे खिसको (जाओ), यहाँ मत कुछ बोलो। हरि-हलधरों को धैर्य-आनन्द देने वाली सत्यभामा के पुत्र की विवाह-विधि है, इसी कारण हे यति. ये सभी पुष्प आरक्षित हैं, माँगने पर तुम एक दल-पत्र मात्र भी प्राप्त नहीं कर पाओगे।" तब वह अटवी सुत (प्रद्युम्न) विलखा (व्याकुल हो गया)। कोप से आतुर होकर मन में काँपता हुआ खड़ा रहा। पुन्नाग, नागर, दिव्य (13) 1. अ. मि'.
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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