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________________ 34] महाकद सिंह विरइउ पञ्जुण्णनरिउ अपहरण तक तथा कालसंवर द्वारा शिला के नीचे से निकाल कर, मेघकूट स्थित अपने निवास स्थल में पालन-पोषण किये जाने तक का वृत्तान्त कह सुनाया (4/12-13)। इतना ही नहीं सीमंधर स्वामी ने शिशु प्रद्युम्न के पूर्व-भव के निम्नलिखित भवांतर (4114 से 7/1-9 तक) भी कह सुनाए – यथा (1) शृगाली रूप में जन्म, (2) सोमशर्मा ब्राह्मण के पुत्र अग्निभूति के रूप में, (3) सौधर्म-स्वर्ग में त्रिदश देव, (4) अयोध्या के नगर सेठ का पूर्णभद्र नामक पुत्र, (5) सहस्रार स्वर्ग में देव. (6) कौशलपुरी के सुवर्णनाम राजा का मधु नामक पुत्र, (7) अच्युत स्वर्ग में देव एवं (8) पन्जुषण (वर्तमान)। कवि ने इन भवान्तरों के माध्यम से पुनर्जन्म एवं कर्म-सिद्धान्त का सुन्दर विवेचन किया है। सीमधार स्तामी के द्वारा कुमार पाल के भतान्तर सुनकर नारद प्रद्युम्न को देखने की इच्छा से मेघकूटपुर जा पहुँचे तथा उसे सकुशल देख कर उन्होंने द्वारका जाकर श्रीकृष्ण एवं रूपिणी को तत्सम्बन्धी सम्पूर्ण वृत्तान्त कह सुनाया (7110-1])। इधर, प्रद्युम्न जैब पाँच वर्ष का हो गया, तब उसे विविध विद्याओं की शिक्षा दी गयी और तीन वर्षों के भीतर-भीतर वह समस्त विद्याओं में निष्णात हो गया। राजा कालसंबर ने उपयुक्त समय पाकर जब प्रद्युम्न को युवराज पद सौंपा, तब उसके 500 पुत्र अपने पिता तथा सौतेले युवराज पर अत्यन्त रुष्ट हो गये। वे सभी मिलकर मारने के उद्देश्य से प्रद्युम्न को विविध स्थलों पर ले गये। कवि ने उस प्रसंग के लिये एक कथानक प्रस्तुत किया है जिसके अनुसार प्रद्युम्न के सभी भाई प्रद्युम्न को विजयाद्ध पर्वत पर ले गये तथा वहाँ उसे एक भयानक सर्प से भिड़ा दिया। उसका उस भयंकर सर्प के साथ युद्ध हुआ (7/12-17) (धौथी से सातवीं सन्धि)। ___ किन्तु जब वह सर्प प्रद्युम्न के पौरुष्प से आतंकित हो गया, तब उसने पक्ष का रूप धारण कर उसको अलकापुरी के राजा कनकराजा, उसकी रानी अनिला देवी तथा उसके हिरण्य एवं तार नामक दो पुत्रों का वर्णन करते हुए बतलाया- "राजा कनकराज अपने पुत्र हिरण्य को राज्य देकर तपस्वी बन गया। हिरण्य भी शीघ्र ही अपने भाई तार को राज्य देकर मन्त्र-साधना हेतु वन में चला गया। 36 वर्षों में जब उसे अनेक विद्याओं की सिद्धि प्राप्त हो गयी, तब वह पुन: अलकापुरी में राज्य करने लगा (8/1-3)। किन्तु राजा हिरण्य को पुन: जब वैराग्य हो गया तब उन विद्याओं ने स्वयं ही उससे पूछा कि अब वे कहाँ रहेंगी? उसके उत्तर में उसने कहा कि.--"आगे से कृष्ण-पुत्र प्रद्युम्न उन विद्याओं का स्वामी होगा।" हे प्रद्युम्न, तभी से मैं इन विद्याओं की रक्षा कर रहा हूँ। अब आप इन्हें संभालिए (4)। इस प्रकार प्रद्युम्न को यक्षराज से विद्याओं की उपलब्धि हो गई। तदनन्तर कालसंवर के सभी पुत्र प्रद्युम्न को कालगुफा, नागगुफा, वनसरसी, वासुकुण्ड, मेणाकार पर्वत, विशाल नगरी, कपित्थक-कानन, वामी, शल्यकगिरि, वराहशैल, पयोवन, अर्जुन, भीममहावन एवं अन्त में जयन्तगिरि पर ले गये (5-16), वहाँ प्रद्युम्न रति नामकी एक अद्वितीय कन्या को देखकर उस पर मुग्ध हो गया। तत्पश्चात् वह राजा कालसंवर के पास पहुँचा (17-19, आठवीं सन्धि)। विधि का विधान कैसा विचित्र है? कनकमाला ने जिस प्रद्युम्न का प्रारम्भ में वात्सल्यभाव से सुरक्षाकर पालन-पोषण किया, आगे चलकर उसी कनकमाला की चेष्टाओं एवं भावनाओं में उसके प्रति काम-वासना जाग उठी। इस कारण प्रद्युम्न के मन में बड़ी ही ग्लानि उत्पन्न हो गयी। वह राजमहल से तत्काल बाहर निकल कर जिन-मन्दिर गया और वहाँ बैठे हुए भट्टारक उदधिचन्द्र के दर्शन कर उनसे कंधनमाला (अपरनाम कनकमाला) के भवान्तर पूछे।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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