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प्रस्तावना
[ 33 वास्तविकता का पता चला, तब उसने की गुही ताः सा की (E
कृष्ण एवं रूपिणी का जीवन जब अत्यन्त सुखपूर्वक व्यतीत हो रहा था, तभी एक दिन दुर्योधन ने अवसर पाकर अपने दूत द्वारा कृष्ण के पास यह सन्देश भेजा कि-"यदि तुम्हारे पुत्र और मेरी पुत्री होगी अथवा मेरा पुत्र और तुम्हारी पुत्री होगी. तो हम लोग परस्पर में उनका विवाह कर प्रसन्नता का अनुभव करेंगे। कृष्ण ने सकारात्मक उत्तर देकर दूत को विदा किया (9)।
समय व्यतीत होता गया और कुछ वर्षों के बाद ही सत्यभामा और रूपिणी दोनों ने एक ही रात्रि में चार-चार स्वप्न देखे । महाराज कृष्ण ने उन स्वप्नों का सुफल जब उन लोगों के लिए कह सुनाया तो वे अत्यन्त प्रमुदित हो उठीं। उन स्वप्नों के फलानुसार ही दोनों रानियों ने उपयुक्त समय पर एक-एक पुत्र-रत्न को जन्म दिया। ज्योतिषियों ने रूपिणी के पुत्र का नाम पन्जुण्ण (प्रद्युम्न) एवं सत्यभामा के पुत्र का नाम भानु रखा । किन्तु छठे दिन ही घोर दुर्भाग्य का वातावरण छा गया। पूर्वजन्म का बैरी धूमकेतु नामक दानव प्रद्युम्न का अपहरण कर उसे तक्षकगिरि पर ले भागा (10-14, तीसरी सन्धि)।
उस दानव ने बड़ी ही क्रूरतापूर्वक शिशु प्रद्युम्न को तक्षकगिरि की एक शिला के नीचे दबा दिया। संयोग से उसी समय मेघकूट का विद्याधर राजा कालसंवर अपनी प्रियतमा कनकमाला के साथ विमान में मनोरंजन करता हआ जब तक्षकगिरि के ऊपर से उड़ रहा था, तभी उल पिश के प्रभाव से सहसा ही उसका विमान रुक गया। यह देखकर यमसंवर (कालसंवर) को बड़ा आश्चर्य हुआ और कारण का पता लगाने के लिए जब वह विमान से उतरा, तभी उसने शिला के नीचे दबे हुए उस सुन्दर शिशु को देखा। उसने बड़े ही स्नेह के साथ कामदेव के समान सुन्दर उस बालक को उठाया. उसका चुम्बन किया और “कामदेव" के नाम से अभिहित कर उसे अपनी रानी कनकमाला को प्रदान कर दिया (4/1-3)। कालसंवर उस शिशु प्रद्युम्न को अपने निवास स्थल घणकूडपुर (मेघकूटपुर) ले आया और स्नेहपूर्वक उसका पालन-पोषण करने लगा।
इधर रानी रूपिणी जब प्रात:काल सोकर उठी और शैया पर अपने शिशु को न देखा तब वह उदास हो गयी। उसने अपनी लज्जिका नामकी दासी से भी पूछताछ की (4:4)। बहुत खोज-बीन करने पर भी जब प्रद्युम्न का पता नहीं चला तब राजमहल में रुदम मच गया। बलभद्र, कृष्ण एवं उनके पिता वसुदेव भी प्रद्युम्न की खोज में निकल पड़े। रूपिणी का करुण-कन्दन सुनकर महाराज श्री कृष्ण भी शोक-सन्तप्त हो उठे। दोनों की विवेकहीन स्थिति देखकर बलभद्र ने उन्हें संसार को नश्वरता का स्मरण दिलाते हुए द्वादशानुप्रेक्षाओं का उपदेश दिया (4/5-6)। ___ जब वे उपदेश दे रहे थे, उसी समय संयोग से नारद जी वहाँ आ पहुँचे उन्हें देखकर रूपिणी और भी फूट-फूट कर रोने लगी (477)। इस प्रसंग में कदि ने सास-बहू तथा ननद-भौजाई की जग-प्रसिद्ध ईष्या, विद्वेष एवं कलह का बड़ा ही सजीव एवं स्वाभाविक चित्रग किया है। सास और ननद अपने परिवार में नवागत महिला के प्रति कैसी तीखी व्यंग्योक्तियों का प्रयोग करती हैं, कवि ने उनका बड़ा ही सुन्दर चित्रण किया है (418)।
रूपिणी को शोक-विहल देखकर नारद जी बड़े दुःखी हुए। वे स्वयं प्रद्युम्न की खोज के लिए निकले और घूमते-घूमते विदेह-क्षेत्र स्थित सीमंधर स्वामी के समवशरण में जा पहुँचे (4/9-11)।
विदेह क्षेत्र का राजा पद्म उस समय समवशरण में विराजमान था। उसने नारद के अतिसूक्ष्म रूप को देखकर सीमंधर स्वामी से उसके विषय में पूछा। उत्तर स्वरूप सीमंधर स्वामी ने प्रद्युम्न के जन्म-काल से लेकर