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________________ 32] महाका सिंह विरहर मजण्णचरिड - वर्तमान द्वारिका) में देवकी-पुत्र राजा मधुमधन (कृष्ण) राज्य करते थे। वह नगरी सुख-समृद्धि से परिपूर्ण थी (6-12)। राजा कृष्ण अपने अग्रज बलभद्र के साथ न्यायपूर्वक राज्य-संचालन करते हुए सुख-पूर्वक जीवन-यापन करते थे (13)। एक बार आकाशमार्ग से जाते हुए गारद राजा का क. प्रधान मन्त्राणु) देते उसकी शोभा से प्रभावित होकर वे तत्काल वहाँ पहुँचे। उन्हें देखते ही श्रीकृष्ण ने सिंहासन छोड़कर उनके चरण-स्पर्श कर उन्हें प्रणाम किया (14)। आसन ग्रहण कर लेने के अनन्तर उन दोनों में परस्पर वार्तालाप हुआ। तत्पश्चात् नारद राजमहल में भ्रमण करते समय उस स्थल पर जा पहुँचे. जहाँ सत्यभामा दर्पण में अपना मुख-दर्शन कर रही थी। अपने दर्पण में नारद जी की छाया देखकर वह भयाक्रान्त हो गयी और विचार करने लगी कि "हमारे सौन्दर्य-श्रृंगार के समय यह कौपीन-धारी कहाँ से आ गग? इसी हड़बड़ी में वह उनका सम्मान भी नहीं कर सकी (15-16) पहली सन्धि । नारद ने इसे अपनी अवज्ञा समझ कर सत्यभामा से बदला लेने की प्रतिज्ञा की और तत्काल ही वे उससे भी अधिक सुन्दरी किसी अन्य राजकुमारी की खोज में आकाश-मार्ग से चले। चलते-चलते वे नागर-वाणी (णायर-गिर) में बोलने वाले पुरुषों तथा अन्य जीव-जन्तुओं को देखते हुए (1-2) एक विद्याधर श्रेणी को पार कर विजयार्द्ध-पर्वत के सौन्दर्य का निरीक्षण करते हुए कुण्डिनपुर जा पहुँचे (3-5)। नारदागमन की सूचना मिलते ही कुण्डिनपुर-नरेश राजः भीष्म ने अपनी युवती पुत्री राजकुमारी रूपिणी के साथ उनका भव्य रवागत कियः । स्वागत के प्रत्युत्तर में प्रमुदित नारद जी ने रूपिणी को शीघ्र ही महाराज कृष्ण की पट्टरानी बनने का आशीर्वाद (6-7) दिया। रूपिणी के लिए नारद का आशीर्वचन सुनते ही रूपिणी की फुआ (सुरसुन्दरी) ने नारद को बतलाया कि रूपिणी का विवाह तो चेदिनरेश राजा शिशुपाल के साथ सुनिश्चित हो चुका है और वह इत्ती पखवारे में सम्पन्न हो जायेगा। किन्तु नारद जी यह सुनकर भी अपने पूर्वोक्त आशीर्वाद को ही दुहराते रहे और वे रूपिणी का एक चित्र लेकर पुन: कृष्ण एवं बलभद्र के सम्मुख जा पहुंचे। उन्हें वह चित्र दिखाकर कृष्ण से रूपिणी की बड़ी प्रशंसा की (8-12)। रूपिणी के सौन्दर्य पर मुग्ध होकर बलभद्र के साथ श्रीकृष्ण नारदजी के परामर्शानुसार कुण्डिनपुर जा पहुँचे। किन्तु वहाँ की स्थिति ही दूसरी थी। चेदि-नरेश शिशुपाल अपने विवाह हेतु वहाँ पहले से ही आ चुका था। अत: श्रीकृष्ण ने अवसर पाकर रूपिणी का अपहरण कर लिया। फलस्वरूप भीषण युद्ध में शिशुपाल का जध करके रूपिणी के साथ वे सकुशल द्वारका लौट आये (13-20 दूसरी सन्धि)। दारामई नगरी में नागरिकों ने उस युगल-जोड़ी का हार्दिक स्वागत कर जय-जयकार किया और दोनों सुखपूर्वक समय व्यतीत करने लगे। सत्यभामा के मन में नवागत रूपिणी के प्रति जहाँ एक और ईर्ष्या एवं विद्वेष था, वहीं दूसरी ओर उसे देखने की अभिलाषा थी। अत: उसने श्रीकृष्ण से अनुरोध किया कि वह रूपिणी के दर्शन उसे अवश्य करा दें। कृष्ण ने समीपवर्ती एक उपवन में उसके दर्शन कराने की व्यवस्था की (1-7)। उन्होंने रूपिणी को उसके शारीरिक सौन्दर्य के अनुकूल श्वेत-परिधान से अलंकृत कर उसे उपवन की एक श्वेत-शिला पर बैठा दिया। सत्यभामा जब उपवन में पहुँची, तब भ्रमवश वह उसे वनदेवी समझ बैठी और उसके सम्मुख प्रार्थना करने लगी कि हे देवी, तू श्रीकृष्ण का ध्यान रूपिणी से हटा कर मेरी ओर लगा। श्रीकृष्ण उस शिला के पापर्व में ही छिपे हुए थे। सत्यभामा की इस प्रार्थना पर उन्हें हंसी आ गयी। सत्यभामा को जब
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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