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________________ 1.11.11] महाकद सिंह घिरइ पप्पण्णचरित [213 5 पत्ता- हले-हले आयण्णहु महो पयणु गुरु भावई सिरु धरेवि धरत्तिहे। जा अवरे तहो जाइ णदि ताव खमावहु सविणय जुत्तिहे ।। 198।। (11) गाहा– सबलाये गय दहा सहा जण कुवलयाबीदे। जपति देव दियबर 'सुय कोहं कु ण सु समचित्तं ।। छ।। तुह कोवि महंतु ण होहि णरु ण बियाणहि किण्णरु किं अमरु । अवराहु म णिय-मणे संभरहि सुंदर-सरू उ सयलहँ करहि। कंपई सुविसंठलु अण्ण मणु अवलोयवि माणिणि मण-दमणु। सहसत्तु "समग्गु तोउ भरिवि णीहरिउ कमंडुलु करे धरेवि । णं उहि अयत्थें आसि जिह सोसिय मणमहणइँ वावि तिह। पुणु रहिवि विरुउ-सुरूउ किउ तियसिंदु-णरिंदु वि जेण जिउ। थोवंतरे दियवरु जाइ जाम तियविंदु विलक्खड़ चवइ ताम। अम्हहमि समाणु करेवि छलु गउ दुहु हरेविणु णिहिलु जलु । कुविऊण ण कच्छइ माइयउ उह उह सुभ गतिउ धाइयउ। "सस्त्रि, हे सखि, मेरे वचन सुनो। गुरुभाव से धरती पर शिर रखकर जब तक जल-स्थान से वह द्विज चला न जाय तब तक विनय युक्तिपर्वक (हम लोग अपने अपराध उससे) क्षमा करा लें।। 198 ।। पत्ता (11) सत्यभामा की तरुणियों को कुरूप तथा सुरूप बनाता हुआ बापी का जल शोषित कर वह प्रद्युम्न लीलापूर्वक द्वारावती के बाजार-मार्ग में जा पहुँचता है। गाथा— समस्त रमणियाँ सहसा ही अपनी-अपनी देह झुकाकर पृथिवी पर लेट गयीं और गिड़गिड़ाने लगी कि हे देव, हे द्विजवर सुत, समचित्त बनिए, क्रोध मत कीजिए। ।। छ।। "तुम्हारे समान महान् कोई भी पुरुष नहीं है। किन्नरों अथवा देवों में भी आपसे महान् कोई होगा, ऐसा हम नहीं जानतीं। अपने मन में हमारे अपराधों का स्मरण मत करो और हम सभी का (पूर्ववत् ही) सुन्दर स्वरूप बना दो। हमारा मन विसंस्थुल (घबड़ाया हुआ) एवं अनमना होकर काँप रहा है।" मन को दमन करने वाले उस मदन ने उन समस्त मानिनियों को देख कर सहसा ही (अपने कमण्डलु में वापी का) समग्र जल भरकर कमण्डलु को हाथ में लेकर निकल गया। पूर्वकाल में जिस प्रकार अगस्त्य ऋषि ने समुद्र को सुखा दिया था, उसी प्रकार उस मन्मथ ने भी उस वापी को सुखा दिया। पुन: तत्काल ही उन विरूप तरुणियों को ऐसा सुन्दर स्वरूप बना दिया कि जिसने त्रिदशेन्द्र, नरेन्द्र को भी जीत लिया। जब थोड़े अन्तर से वह द्विजवर जा रहा था, तभी वे तरुणियाँ बिलखती हुई बोलीं---"हमारे साथ छल करके तथा सम्पूर्ण जल हरकर वह दुष्ट चला गया।" कुपित्त होकर वे नारी कहीं नहीं समायीं (ठहरी) और अरे वह, अरे वह, इसप्रकार संकेत करती हुई दौड़ने लगी। (11) 1. अ. 'तु। 2. ज सुत्ता - 3-4. अ. तोउ अगुणु रित्रि। 5. ब. भ।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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