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विरह पज्जुष्णचरिउ
यत्ता -- उवहसउणिवारिउ थक्कु णत्रि विज्ञ कमंडलु गहिय करु । वाविहे वरंभ परिपूरियहे अति पइठउ दियवरु ।। 1971 ।। (10) गाहा— बक्कल-घण पीण पोहरीहि दिग्गम-गय-गव्व गमणीहिं । अवलोय विसुद्ध विरुद्धियाहि दियवरहो सय ण रमणीहिं ।। छ।। अणुइँ तो पसरेवि ताम पुणु मुट्टि -पहारहिं हहिं जाम । तामयणे प्यायउ पवंचु विरइयउ ताहँ विरूव संचु काहिमि एक्केक्कउ चक्खु हरिउ काहिमि कयरइउ सीसुधरिउ । काहिमि उररूहहँ ण ठाउँ दिठु काहिम पासाउछु उठु-पिट्छु । काहिम बोल्लतिहि वयणु स्वलिउ काहिमि वर पिट्ठि सुवंसु दलिउ । लवणहिं णउ आयणंति केवि काहिम किउ गीवा संगु लेवि । इस पेक्खतिहि णिय- णियय देहु यि चित्ते अइ गरुव खोहु । जंपति परोप्पस णट्ट - छाय अम्हइंमि कुद्ध दियवरहो पाय ।
पत्ता- उपहसित एवं निवारित वह द्विजवर रुका नहीं। विद्या द्वारा निर्मित कमण्डलु अपने हाथ में लेकर उसमें जल भरने के लिए वह झटपट ही उस वापी में प्रविष्ट हो गया। 197
गाथा
(11.9.11
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यह (द्विज) तरुणियों को कुरूप बनाकर जल मार्ग से आगे बढ़ने लगता है चक्कल ( चिकने गोल) घन घीन पयोधरी तथा दिग्गज गज के समान गर्व से गमन करने वाली उन समस्त रमणियों ने द्विजवर को (नियम के ) बिलकुल विरुद्ध जाता हुआ देखकर । । छ । । उसका अनुसरण करती हुईं वे ( रमणियों भी उस वापी में ) प्रवेश कर गयीं और मुष्टि-प्रहारों से उसे मारने लगीं। तब मदन ने एक प्रपंच रचा। उसने उनके उत्तम रूप को विरूप बना दिया। किसी की एक-एक चक्षु हर ली। किसी की आँख माथे पर रच दी। किसी के कुचों का स्थान ही दिखायी नहीं देता था, तो किसी की नासा बहुत अधिक उठी हुई थी, तो किन्हीं का ओठ - पीठ की ओर चला गया था। किन्हीं की बोलते-बोलते वाणी लड़खड़ा जाती थी, किसी की उत्तम पीठ का सुवंश (मेरुदण्ड ) दलित हो गया था। कोई-कोई अपने कानों से सुन नहीं पाती थी और किन्ही के कान गर्दन के साथ बन गये। अपनी-अपनी देह को इस प्रकार से देखती हुई उन रमणियों के चित्त में महान् क्षोभ उत्पन्न हुआ (मन में हलचल मच गयी ) । नष्ट छवि वाली वे स्त्रियाँ परस्पर में कहने लगीं कि "हमें कुछ द्विजवर के चरणों में लगना चाहिए। "
(10) 1 अ 2. अ 31