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11.9.10]
महाकर सिंह विराउ पज्जपणचरिज
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घत्ता- इय सवर परोप्परु चवहिं किर ताम तहिं जि हउँ पत्तउ।
दीहर-पहेण चिक्कंतु णिरु कंतहीणु संपत्तउ ।। 196।।
गाहा--- ता पेछिवि महु रूवं भिल्ला जपंति परम भावेण।
आपण्णिं दिय देसा कण्णारयणं पि गिण्ह लहु एयं ।। छ।। सवराहिउ जंपइ पय लग्गउ मा अवगणि णाह तुह जोग्गउ । लइ-लइ कि वह अइ असगावे दिण्णी तेण मज्झु गुरु'-भावें। ताहि समाणु जुबइ णउ दीसह णिय-रूवई सुर-तियउ विसेसइ । मझु सरिसु वर णउ महि-मंडले णिय रूवइँ णिज्जिय आहंडले। तहो वयणेण भत्ति संजुत्तइँ कुरुवह-सुव करे धरिय तुरंत.। हरिणंदणु मई मुणहु पमेल्लहु मा रक्खेहु सलिलु लहु मेल्लहु । तं णिसुणेवि जुबईयण विदें
हसिउ सविस्भमु कह-कह सदें। कहिं तुहुँ कहिँ कुरुवइ तणुरुइ थिय णिच्छउ वयणु जं जि सवरहिं हिय |
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घत्ता-
"इस प्रकार शबर (भील) परस्पर में कह रहे थे तभी मैं वहाँ पहुँच गया और दीर्घपथ से दौड़ता-भागता हुआ थककर म्लान होकर यहाँ आ पाया हूँ।। 196।।
उदधिकुमारी को परिणीता-पत्नी घोषित कर द्विज वेशधारी प्रद्युम्न बलपूर्वक बापी में प्रवेश कर जाता है गाथा- तब मेरे रूप को देखकर वे भील परम भावना पूर्वक मुझ से बोले-~"हे द्विज वेशधारण करने वाले,
सुनो, इस कन्या रत्न को तुम शीघ्र ही ग्रहण करो।" ।। छ।। वह भीलराजा मेरे चरणों में लगकर बोला-..."अस्वीकार मत करो। हे नाथ, यह तुम्हारे योग्य है। इस कन्यारत्न की बहुत अधिक प्रशंसा करने से क्या? इसे ले लो।" यह कहकर उस भील ने मुझे गुरुभाव से वह (कन्या रत्न) प्रदान किया है। उस कन्या के समान अन्य कोई युवती नहीं दिखायी देती। अपने रूप में वह देवियों से भी विशेषता रखती है और महीमण्डल में मेरे समान भी और कोई वर नहीं। अपने रूप से मैंने आखण्डल (इन्द्र) को भी जीत लिया है। उस (भीलराज) के निवेदन करने पर मैंने भक्ति सहित कुरुपति की पुत्री का तुरन्त ही हाथ पकड़ लिया (अर्थात् हम दोनों का वहीं पाणिग्रहण हो गया)। (अत: अब) मुझे हरिनन्दन मानों और छोड़ो। (मुझसे) जल की रक्षा मत करो, जल्दी ही (मार्ग) छोड़ दो (अर्थात् मुझे रोको मत। जल-मार्ग से तुरन्त जाने दो)।" यह सुनकर वे युवतियाँ विभ्रमों सहित कह-कहे लगा कर हँसने लगी और कहने लगी"कहाँ तू और कहाँ कुरुपति की कन्या? क्या तेरा यह कथन निश्चय (सत्य) हो सकता है कि शबरों के द्वारा यह कन्या अपहृत कर ली गई?" किन्तु,
(9) 14. गुरूभावें।