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11.7.12]
महाका सिंह विराउ पज्जुष्णचरिउ
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गाहा– वियसंत-णलिण-वयणा-लक्खणवंता सुकुंतला बाला।
सुपयोहरा पुरंधि व णियय सरो णाम वर वावी।। छ।। ता पुंछिय कुमरइ णियय-विज्ज कहो तणिय वावि इह जण-मोज्ज । जायव पंडव-कुरु णमिय पाय । किण्ण मुणहिं भाणुहि तणिय माय । 'मा करई एत्यु जल-कील रंगु आयलिण्णिदि पुलइउ अणंगु । परिवत्तिउ मायइँ णियय-रूउ । गिण्हेवि तुरिउ दियवरिम रूउ। थरहरि के लंपतु सी
पारवः परिगर सिरे सुब्भ-केसु । छत्तिय-कुंडिय करे जडि करेवि उरेमुत्तरीउ तियस रूवि घरेवि । 'मियवासु दम्भ मयरद्धरण कोवीणु णियंवे णिवहु तेण।
घोसंतु वेय-सद्दत्थ-वयणु सुइ-रहिय सवणु णिरु णि मिय णय । पत्ता- गउ 'वाविहिं दियवरु सुसिय कलेवरु आहासइ अवलाहिं सहुँ।
उसरहु सु तणयहो छणससि क्यणहो संति करेवइ देहु महु ।। 195।।
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अन्ध-वधिर ब्राह्मण के वेश में प्रद्युम्न वापिका के पास एकत्रित तरुणियों से वार्तालाप करता है गाथा- विकसित कमल ही जिसके मुख हैं, पक्षी ही जिसके सुन्दर केश हैं एवं सुन्दर पय ही जिसके पयोधर
__ हैं, ऐसी सुलक्षिणी पुरन्ध्री के समान वह क्रीड़ा-वापी के नाम से प्रसिद्ध धी।। छ।।
तब कुमार ने अपनी विद्या से पूछा-"कहो, जन-मनोज्ञ यह वापी किसकी है?" तब विद्या ने उत्तर में कहा—"पाण्डवों एवं कुरुओं से नमस्कृत चरण वाले हे यादव, क्या तुम नहीं जानते कि यह वापी भानुकुमार की माता (सत्यभामा) की है? तुम यहाँ जलक्रीड़ा की रंगरेली मत करो।" यह सुनकर प्रद्युम्न--अनंग पुलकित हो उठा। माया से उसने अपना रूप पलट लिया और तुरन्त ही द्विजवर का रूप धारण कर लिया। उसकी देह थरहराती थी, मस्तक काँपता था, बुढ़ापे के कारण सिर के केश पक कर सफेद हो गये थे। उस निपट चतुर मकरध्वज ने अपने हाथ में छत्री तथा जड़ी कुण्डी (कमण्डलु) लेकर हृदय पर उत्तरीय रख कर देव जैसा रूप धारण किया तथा नितम्ब पर मृगचर्म दर्भ की कौपीन धारण कर ली और वेद के शब्दार्थों को अपने मुख से घोषित करता हुआ वह बधिर तथा अन्धा बन गया। घत्ता- वह सूखे शरीर वाला द्विजवर उस वापी के पास जाकर बोलने लगा सुपुत्रवती कमलमुखी तरुणीजनों
आगे बढ़ो और मेरी देह को शान्त करो।। 195 ।।
(7) 12. अ. से करइ पच्छ। 3. अ. च। 4-5. अ. परिदसग गलिय।
6. अ. "सि। 7-8. अ. नठ वपणु। 9.अ. दाहिवि।