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________________ 208] महाका सिंह विरइज पज्जुण्णचरिउ [II.6.4 वाहिउ अहिमुहुँ तुरिएण पुणु णिचित्ते चमक्किउ युवइयणु । विहड़पफड पहि उप्पड़ गयउ कंपइ विवत्थु भय-जर लयउ । लहु तुरय-पण रहेण सहु गउ सारहि महियले पत्तु दुहु। मंगल-सुकुंभ-भंजिय धवला तोडिय उल्लोयय-धय-चवला। केवि चूरिय तहे णासंतु केवि । केवि हसहिं परोप्परु ताल देवि। कोऊहलु केवि णियंति जाम मायामय दंरूमसेहिं ताम। चउदिसहि भमिय मुहु रुणुरुणंत खज्जत विगय णिय तणु धुणंत । इय पेच्छिऊण फउरयणु चवइ विवरीयइँ कीलई कोवि कर इ। कि गुरु किं किण्णरु किं सुरिंदु कि जक्खु-महोर उ रवि णिसिंदु । विभिय चवंति किं पुरिसु एहु । हरि णयरि पवेसिवि दिव्य-देहु । धत्ता- तहिं रमेवि पवंचु सुसंहरिवि पुरिहिं मज्झे पइसरइ किर। किण्हहो-महएविहि मणहरिणि पेच्छइ कीला-वावि वर ।। 194।। 10 15 दो ऊँटों के ऊपर उसकी धुरी रखकर उसका पगहा (लम्बा रस्सा) अपने हाथ में पकड़कर उन्हें तत्काल ही उन युवतिजनों के समक्ष हाँक दिया। यह देखकर मुवतिनन सपने मन में चमक (आश्चर्यचकित हो) उठीं । भय एवं बुढ़ापे से ग्रस्त वस्त्र-विहीन वह काँपने लगा। विस्तृत स्पष्ट पथ होने पर भी वह अनंग उत्पथ (उन्मार्ग) से चला। रथ में जुते हुए घोड़े शीघ्र ही भाग खड़े हुए। सारथी धरती पर गिरकर दु:ख को प्राप्त हो गया (अर्थात् घायल हो गया)। मंगल-कलश भग्न कर दिये गये। फरफराती हुइ चपल ध्वजा तोड़ दी गयी। कोई-कोई चूर कर दिये गये, कोई-कोई नष्ट कर दिये गये, और कोई-कोई परस्पर में ताल दे-देकर हँसने लगे। कोई-कोई जब कौतूहल देखने लगे तब उस प्रद्युम्न ने मायामय देशमशक उत्पन्न कर दिये जो चारों ओर बार-बार रुणझुण-रुणझुण करते हुए घूमने लगे तथा उनके द्वारा डैसे गये वे लोग अपने शरीरों को खुजलाते हुए भाग खड़े हुए। यह सब देखकर पौरजन बतियाने लगे-"यह विपरीत क्रीड़ा कौन कर रहा है? क्या यह गुरु (बृहस्पति) है? क्या यह किन्नर है? क्या यह सुरेन्द्र है? क्या यह यक्ष है? क्या यह महोरग है अथवा क्या यह उत्तम सूर्य अथवा चन्द्र है? विस्मय से कोई व्यक्ति पूछने लगे कि क्या यह कोई दिव्य देहधारी पुरुष है, जिसने हरि-नगरी में प्रवेश किया है?" पत्ता- "वहाँ रमकर पुन: अपना प्रपंच (मायाजाल) समेटकर वह प्रद्युम्न पुरी के मध्य में घुसा। वहाँ उसने कृष्ण की महादेवी की मनोहारिणी उत्तम क्रीड़ा-वापी देखी।। 194।। 16) 3. अ. १म। 4. ब परि।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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