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11.6.3]
महाकद सिंह विरबाउ पज्जुण्णचरिउ
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भजिउ असेसु
थिउ भूपएसु। एतहि वि कामु
वहु सोक्ख-धामु। किर जाइ जाम
रहु दिदा ताम। कलहोय 'घडिउ
रयणेहिं जडिज। वज्जत-ता
भुनतः - पूरु। काहल-सरेण
भेरी-रवेण। वज्जत-संख
पेक्सह असंख।
झुणि मंगलेहि। करे पूरि-अंभ
मंगल सुकंभ। णिय-विज्ज सरिसु
जण-जणिय हरिसु। जंपइ किमत्थु
हउ तरुणि सत्थु । पुणु तेण कहिउ
णउ किंपि रहिउ। पत्ता – जलजत्त-णिमित्तइँ जुवइयणु मिलिउ असेसु वि सामिय ।
___भाणुहि विवाह-विहि कारणइँ सुणि दिग्गय वर गामिय ।। 193 ।।
अवलायणेहि(3)
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गाहा- ता आयपणेवि इमं सहसा विवरीय सोहया सारं ।
विरएविरह मायामयंपि उडूय धयवडा फारं।। छ।।
दोवरि" करहो तहो धुरि करेवि 'पग्गहय सुदिढ णिय-करे धरेवि । वन को नष्ट कर दिया; केवल भूमि-प्रदेश मात्र बच पाया। तदनन्तर, अनेक सुखों का स्थान वह कामदेव जब आगे गया, तब वह एकान्त में देखता है कि कलधौत के बने हुए रत्नजटित घट स्थापित हैं। तूर बज रहे हैं। काहल के स्वर एवं भेरी की ध्वनि से लोक पूर रहा है, शंख बज रहे हैं। पुनः देखता है कि हाथों में जलपूर्ण मंगल कलश लिये हुए असंख्य नारी जन मंगलगीतों से ध्वनि कर रही हैं। लोगों में हर्ष उत्पन्न करने वाली अपनी सरस-विद्या से पूछा- "तरुणियों का यह समूह यहाँ किस प्रयोजन से उपस्थित है?" तब उस प्रज्ञप्ति-विद्या ने उत्तर में कहा-"कुछ भी (किसी से) छिपा नहीं है।" घत्ता- दिग्गजगति वाले हे स्वामिन, सुनिए भानुकुमार की विवाह-विधि के कारण ये सभी युवतियाँ जल-यात्रा
के निमित्त यहाँ मिल रही हैं।। 193 ।।
मंगल तरुणियों की भीड़ तितर-बितर कर वह प्रद्युम्न सत्यभामा की वापी पर पहुंचा गाथा-- (भानुकुमार के विवाह की तैयारी सम्बन्धी वृत्तान्त) सुनकर उस प्रद्युम्न ने सहसा ही उसके विपरीत
आगे सारभूत शोभा करके मायामयी विशाल उड़ने वाली ध्वजा-पट बनाई।। छ।।
(5) I. . धरित। (6) 1. रवीय। 2. अ व.।
(5) (3) अ स्त्रीजन:: 169 द्वौदिशौ।