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महाकद सिंह विरइउ पजण्णचरित
111.4.9
हरि एक्कु वि परि इह कील-करइ अबरू वि णियंतु अमरिंदु भरइ । मायंगेण वि पुणु भासियउ वणवद मइँ तुज्झु पयासियउ। पहियह वि मज्झु हरि-किंकर, रूसेविणु भणु किं अवहर। वणवाल सुणिठुर होति सइँ । अह मग्गिउ जई उ दिएणु पहूँ। पेक्खेसहु जं करिहइ पवंगु
मेल्लिवि गउ अवरेत्तहिं अणंगु।। घत्ता– तोडंतु फलइँ भजंतु तरु वलिमुहु जाम पइठ्ठल। पवणंगउ णं दहत्वयण-वणे तहे वणरक्खे दिट्ठउ ।। 1921।
(5) गाहा --- हणु-हणु भणंत किंकर समग्ग घणु-पासु-सुपरसु हत्था।
रंभेवि वणं णिरु चउदिसेहिं ("पमयाणु भग्गे लगा।। छ।। किर घिवइ पासु
कइ-अंगणासु। णिविसई) करेइ
पुणु बुक्करेइ कुविऊण चलइ
वशु सयलु दलइ।
वनरक्षक से कहा—“पापी, देखता नहीं और ऐसे कुवचन बोलता है?" एक भी वागर यदि यहाँ कीड़ा करता है,
और उसे देखकर यदि अनेक अमरेन्द्र--वानर भी यहाँ भर जाते हैं (तो बाद में मुझे कुछ मत कहना)।" उस मातंग ने पुन: कहा—"हे वनपति (अब) मैंने तुम्हें (सब) प्रकट कर दिया है। हरि-किंकरों (बन्दरों) ने भी मुझ पथिक से रूस कर कहा है कि— बोलो, हमें क्यों तिरस्कृत कर भगाया जा रहा है? वनपाल तो स्वयं निष्ठुर होते हैं, अत: माँगने पर पदि (फल) नहीं देते हैं तो देखोगे कि वानर क्या (लीला) करेगा?" यह कहकर तथा वानर को उस बगीचे में छोड़कर वह अनंग अन्यत्र कहीं चला गया। घत्ता- बलिमुख—वानर जब बगीचे में घुसा तो वह फल तोड़ने लगा और वृक्ष मोड़ने लगा। वह ऐसा प्रतीत
होता था मानों पवनांगज (हनुमान) दशवदन (रावण) के वन में ही पहुँच गया हो। उसी रूप में वनरक्षकों ने उस वानर को देखा ।। 192।।
(5)
माकन्दवन को नष्टकर प्रद्युम्न आगे बढ़ता है और मंगल तरुणियों के झुण्ड को देखता है गाथा- "मारो-मारो" कहते हुए सभी सेवक धनुष बाण, पाश एवं परशु हाथों में लेकर वन को चारों दिशाओं
से भलीभाँति धेरकर बन्दरों के भगाने में लग गये। ।। छ।। किन्तु वानर के शरीर नाश के लिये पाश कैसे डाला जाता? निमिष्य मात्र में तो वह फल खा जाता था और बुकरता (गुर्राता) रहता था। कुपित होकर दौड़ जाता था। उसने समस्त बन को रौंद डाला। (इस प्रकार) पूरे
(141) अ. वनरा. (2) निमिषमात्रा हिच्छतिकरि ।